अंतर्द्वन्द्व
इंसानियत का चीरहरण
समय के साथ बढ़ता जा रहा है,
कुछ परिवर्तन का वयार
समृद्धि के नशे के साथ
तो बहना ही चाहिए ।
कैसे गढ़ी जायेगी
सरस जीवन की परिभाषा
प्रकृति की लयबद्धता के साथ ,
जिंदगी की मायूसियों के बीच
समय का अंतर्द्वन्द्व भी ,
क्या रोक सकेगा कदमों को
पुनः गहरी घाटियों की ओर
बढ़ने से ?
समय की मौन शिलाओं पर
इतिहास गढ़ा जायेगा ,
दर्द की बारीकियों का
थके कदमों की वेवशी का ,
और जिल्लतों की तिजारतों का ।
बड़ी शालीन खूबसूरती
के साथ प्रकृति
देख रही है इस दृश्य को ,
जहाँ अब भी, मानव मन में
धृष्ठ कामनाओं का अंत नहीं है।
वह फिर चल पड़ेगा
उन्हीं राहों की ओर ,
जहाँ से ,
जहर का बूंद बूंद रिसता है
साँसों में भर देने के लिए
और बुद्धि कटती रहेगी तीक्ष्ण धार से ।
चुनौती है ,
इस अंतर्द्वन्द्व से निकलने की,
इसे जीतने की या
हारकर दम तोड़ देने की ?
डा रेखा सिन्हा
राजगीर ,नालंदा ,बिहार