जमानत पर सुप्रीम कोर्ट की मंशा

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

भारत में कई मामलों में पुलिस की मनमानी सामने आती रहती है। कई बार सत्ता पक्ष, निजी स्वार्थ स्थानीय दबाव के चलते पुलिस साधारण मामलों में इतना कड़ा और असंवैधानिक रूख अख्तियार कर लेती है कि साधारण से दोष में इंसान का जीवन बर्बाद हो जाता है। कई ऐसे मामले जिनमें साधारण से प्रयास में जमानत हो जाए वो लम्बे समय से तक जेलों में सड़ते रहते है। भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा  बहुत अधिक एवं विवेकहीनगिरफ्तारियों की प्रवृत्ति, विशेष रूप से गैर-संज्ञेय अपराधों के लिये अनुचित ठहराया जा चुका है।

इसने इस बात पर जोर दिया कि संज्ञेय अपराधों के लिये भी गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है और इसे आवश्यक होना चाहिये।सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को रेखांकित किया कि जमानत से संबंधित कानून में सुधार किया जाना अति आवश्यक है और सरकार से यूनाइटेड किंगडम के कानून की तर्ज पर एक विशेष कानून बनाने पर विचार करने का आह्वान किया।

दो न्यायाधीशों की बेंच ने जुलाई 2021 में जमानत कानून में सुधार, (सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम सीबीआई) पर दिये गए एक पुराने फैसले को लेकर कुछ स्पष्टीकरण जारी किये हैं। देश में जेलों की स्थिति, जहाँ दो-तिहाई से अधिक विचाराधीन कैदी हैं, का उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया कि गिरफ्तारी एक कठोर उपाय है जिसका संयम से प्रयोग किये जाने की आवश्यकता है। सैद्धांतिक रूप से न्यायालय ने मनमानी गिरफ्तारी के विचार को जेल नही, जमानत के नियम की अनदेखी करने वाले न्यायाधीशो की औपनिवेशिक मानसिकता से जोड़ा है।दंड प्रक्रिया संहिता पहली बार 1882 में तैयार की गई थी और समय-समय पर संशोधनों के साथ इसका उपयोग जारी है।

यूनाइटेड किंगडम का जमानत अधिनियम, 1976 जमानत देने की प्रक्रिया निर्धारित करता है। इसका एक प्रमुख विशेषता यह है कि कानून का एक उद्देश्य कैदियों की आबादी के आकार को कम करना है। कानून में प्रतिवादियों के लिये कानूनी सहायता सुनिश्चित करने के प्रावधान भी हैं। अधिनियम जमानत दिये जाने के लिये एक सामान्य अधिकार को मान्यता देता है। इसकी धारा 4 (1) के अनुसार, यह कानून उस व्यक्ति पर लागू होता है जिसे अधिनियम की अनुसूची 1 में दिये गए प्रावधान में जमानत दी जाएगी।

जमानत खारिज करने के लिये अभियोजन पक्ष को यह दिखाना होगा कि जमानत हेतु प्रतिवादी पर विश्वास करने के लिये आधार मौजूद हैं कि वह हिरासत में आत्मसमर्पण नहीं करेगा, न ही जमानत पर रहते हुए अपराध करेगा या गवाहों के साथ हस्तक्षेप करेगा और न ही न्याय के मार्ग में बाधा डालेगा, तब तक प्रतिवादी को अपने कल्याण या सुरक्षा के लिये या अन्य परिस्थितियों में हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिये।

न्यायालय के अनुसार सीआरपीसी में स्वतंत्रता के बाद किये गए संशोधनों के बावजूद यह बड़े पैमाने पर अपने मूल ढाँचे को बरकरार रखता है, जैसा कि अपने विषयों पर औपनिवेशिक शक्ति द्वारा तैयार किया गया था। न्यायालय ने कहा कि फैसलों के बावजूद संरचनात्मक रूप से संहिता अपने आप में मौलिक स्वतंत्रता के मुद्दे के रूप में गिरफ्तारी के लिये जिम्मेदार नहीं है। इसने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि यह जरूरी नहीं कि मजिस्ट्रेट अपनी विवेकाधीन शक्तियों का समान रूप से प्रयोग करें।

 न्यायालय के निर्णयों में एकरूपता और निश्चितता न्यायिक व्यवस्था की नींव है।एक ही तरह के अपराध के आरोपी व्यक्तियों के साथ एक ही न्यायालय या अलग-अलग न्यायालय द्वारा कभी भी भिन्न व्यवहार नहीं किया जाएगा।इस तरह की कार्रवाई भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का गंभीर उल्लंघन होगी।यहॉ इस बॉत पर ध्यान देना चाहिए कि संहिता की धारा 88, 170, 204 और 209 के तहत आवेदन पर विचार करते समय जमानत आवेदन पर जोर देने की जरूरत नहीं है।ये धाराएँ मुकदमे के विभिन्न चरणों से संबंधित हैं जिनके आधार पर मजिस्ट्रेट आरोपी की रिहाई पर फैसला कर सकता है।

ये मजिस्ट्रेट की पेशी के लिये बॉण्ड लेने की शक्ति (धारा 88) से लेकर समन जारी करने की शक्ति (धारा 204) तक हैं।सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार इन परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट को नियमित रूप से एक अलग जमानत आवेदन पर जोर दिये बिना जमानत देने पर विचार करना चाहिये। इसी लिए पहले भी  सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को आदेशों का पालन करने और विवेकहीन गिरफ्तारी से बचने के लिये स्थायी आदेशों की सुविधा प्रदान करने का भी निर्देश दिये थे। 

भारतीय दंड संहिता  भारत की आधिकारिक आपराधिक सहिंता है जिसे वर्ष 1834 में स्थापित भारत के पहले विधि आयोग की सिफारिशों पर चार्टर अधिनियम, 1833 के तहत वर्ष 1860 में लॉर्ड थॉमस बबिंगटन मैकाले की अध्यक्षता में तैयार किया गया था। भारत में वास्तविक आपराधिक कानून के प्रशासन के लिये मुख्य कानून है। यह वर्ष 1973 में अधिनियमित किया गया था और 1 अप्रैल, 1974 को लागू हुआ था। 

अनुच्छेद 20 यह कहते हुए मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है कि कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिये तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करते समय, जिसमें वह अपराधी के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक सजा का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किये जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी। अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करता है।

किसी व्यक्ति की नजरबंदी भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।अनुच्छेद 22 गिरफ्तारी और नजरबंदी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।

हाल में सुप्रीम कोर्ट का केंद्र सरकार से यह पूछना मायने रखता है कि जमानत के प्रावधानों से संबंधित नया कानून लाने पर काम हो रहा है या नहीं। दरअसल, यह मामला सुप्रीम कोर्ट के ही जुलाई 2022 में दिए एक आदेश से जुड़ा है। उसमें कोर्ट ने केंद्र सरकार को कहा था कि जिन मामलों में अधिकतम सजा सात साल से कम हो, उनमें जमानत को लेकर नया कानून बनाया जाए।

 इस संबंध में जो कोर्ट की चिंता है, वह देश के सिविल सोसाइटी सदस्यों की बातों से भी लंबे समय से झलकती रही है। जुलाई 2022 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने उसे इन स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया था कि भारत को कभी पुलिस स्टेट में तब्दील नहीं होना चाहिए।इसे लेकर हमेशा सचेत रहना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि आजादी के बाद से भारत लोकतंत्र की राह पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ता रहा है। अगर थोड़ा आगे-पीछे आजाद हुए अन्य देशों के अनुभवों के मुकाबले देखा जाए तो भारत में लोकतंत्र की जड़ें कहीं ज्यादा गहरी हैं। लेकिन फिर भी पुलिसिया ताकतों के गैरजरूरी इस्तेमाल की शिकायतें मिलती रहती हैं। 

और, दुर्भाग्य से उनमें से ज्यादातर शिकायतें ऐसी होती हैं, जिन्हें निराधार कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। यहां इस तथ्य को रेखांकित करना खास तौर पर जरूरी है कि यह समस्या किसी एक राजनीतिक दल से जुड़ी नहीं है। अगर ऐसा होता तो इस अर्थ में अच्छा था कि तब समस्या का समाधान अपेक्षाकृत आसान होता। लेकिन अलग-अलग कालखंडों की बात तो दूर, एक ही समय में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकार होने के बावजूद वहां से ऐसी शिकायतें मिलती रहती हैं। शायद यह भी एक वजह है कि अदालतों ने इसे लेकर सख्त रुख अपनाया है। 

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के ऐसे कई आदेश हैं जो बताते हैं कि सरकारी तंत्र को नागरिकों के अधिकारों को लेकर ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है। अनावश्यक गिरफ्तारी या जमानत में देरी के अलग-अलग मामलों से निपटते हुए ऊपरी अदालतें ऐसे निर्देश देती रही हैं। लेकिन उनका ज्यादा असर नहीं दिखा तो उसकी एक वजह यह भी है कि इस बारे में कोई ऐसा स्पष्ट कानून नहीं है, जो राज्यों में कानूनी एजेंसियों के लिए मार्गदर्शन का काम करे। जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट का यह दखल जरूरी और महत्वपूर्ण है। अगर सरकार ने अब तक कानून बनाने की दिशा में कोई गंभीर पहल नहीं की है तो अपने इस रुख को तत्काल बदलते हुए प्रभावी कानून लाने के प्रयासों में तेजी लानी चाहिए।

 बहरहाल अब सरकार को पुलिस कर्मियों के बीच कानूनों के बारे में जागरूकता बढ़ाना, एक क्षेत्र में शिकायतों की संख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों और स्टेशनों की संख्या में वृद्धि करना तथा आपराधिक न्याय प्रणाली में सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं मनोवैज्ञानिकों को शामिल करना। पीड़ित के अधिकारों और स्मार्ट पुलिसिंग पर भी ध्यान देने की जरूरत है। पुलिस अधिकारियों की दोषसिद्धि की दर और उनके द्वारा कानून का पालन न करने की दर का अध्ययन करने की आवश्यकता है। 

जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने रेखांकित किया है, देश में विचाराधीन मामलों के प्रभावी प्रबंधन के लिये जमानत पर एक अलग कानून का मसौदा तैयार किया जाना चाहिये। समाज के विभिन्न वर्गों से पुलिस बल में समावेशन बढ़ाना, ताकि किसी भी जाति ध्वर्ग /समुदाय के खिलाफ मनमानी गिरफ्तारी से बचने के लिये संतुलित मानसिकता प्रदान की जा सके।