हे आदम! कहाँ हो?

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क  

अस्पताल का नाम था सेवा मंदिर। सेवा का तो पता नहीं डॉक्टरों को मेवा बहुत मिलता था। अस्पताल के आरंभिक दिनों में डॉक्टर ऑटो में आते थे। अब खुद की चार-चार कोठियाँ और ऑडी-बेंज कार हैं। मरीजों का तो पता नहीं डॉक्टरों की बल्ले-बल्ले है। या यूँ कहिए कि अस्पताल केंचुए से अजगर बनने की कड़ी में जेट स्पीड से बढ़ता जा रहा था। यहाँ कर्मचारी काम कम खुशामदगिरी ज्यादा करते थे। खुशामदगिरी का परिणाम यह हुआ कि काम करने वाला कोल्हू का बैल बनकर उनके इशारे पर नाचता था।

मरीजों से पूछने पर पता चला कि अस्पताल ऊपर से कमल के फूल के समान सुंदर और भीतर से दलदल की तरह है। एक बार जो मरीज बनकर आता है उसका घर-बार बिकना तय है। यहाँ गरीबों की भी सेवा होती है, लेकिन सरकारी स्वास्थ्य कार्ड होना जरूरी है। कार्ड है तो वार्ड है। वरना यहाँ आना बेकार है। डॉक्टरों को इन कार्डधारकों को हैंडल करने के लिए खास तरीके की ट्रेनिंग दी गई है। कोई भी बाहरी बीमारी हो उसे ब़ड़ा बताकर ऑपरेशन करने के लिए बाध्य करना इनकी चिकित्सकीय निपुणता का पहला और अंतिम निर्णय होता है।

वैसे इस अस्पताल का नाम बीमा मंदिर होना चाहिए था। कारण, यहाँ बीमाधारी मरीजों को विशेष खातिरदारी होती है। मरीज के अस्पताल में प्रवेश करते ही सबसे पहले पूछा जाने वाला सवाल होता है – क्या आपके पास बीमा है? यही मरीज ने हाँ कह दिया तो समझो डॉक्टरों की टीम जोंक की तरह उस पर टूट पड़ेगी। सेलाइन चढ़ाने से पहले खून चूसने का अपना मनपसंद काम शुरू कर देंगे। 

बीमा धारकों के भर्ती होने का मतलब अपनी गाड़ी सर्विसिंग देने जैसा है। जिस तरह गाड़ी का पुर्जा-पुर्जा खोलकर देखा जाता है ठीक उसी तरह ब्लड टेस्ट, यूरिन टेस्ट, स्टूल टेस्ट, ईसीजी, एक्सरे, अल्ट्रास्कैन, फलाना स्कैन, ढिमका स्कैन सब कुछ।             

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657