कोहराम कोहरे का

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 


शरद् ऋतु का आगमन,रवि किरणों के नहीं दर्शन

भाने लगी गुनगुनाती धूप,आई कंपकंपाती ठिठुरन

चहुंओर कोहराम कोहरे का,अब कुछ देता नहीं दिखाई 

हाथ को हाथ नहीं सूझता,अब तो जान पर ही बन आई 

सड़कों पर जलते अलाव,कंबल में लिपटी हुई जिंदगी

काम कोई होता नहीं अब,बस जैसे ठहर गई जिंदगी 

रजाई कंबल में दुबके लोग,नौकरी वाले निकले सड़क पर 

बर्फ सी कड़कड़ाती ठंड में भी,पर जाना पड़ता है दफ्तर

चहुंओर व्याप्त घना कोहरा ,सुनसान हो रही सब डगर

गहन रात्रि में भी जाना पड़ता,अचानक अगर इधर उधर

धरा से आकाश तक छाई हुई,घने कोहरे की ही चादर 

आगे का कुछ नहीं दिखता,ठहर गया जैसे अब हर पहर

कंपकंपाते होंठ बजने लगी, देखों दांतों की भी वीणा

मुश्किल हो गया एक कदम, कोहरे में भी आगे धरना

कोहरे के कोहराम से रुक रहे,जैसे सबके ही जरूरी काम

न जाने कब दर्शन होंगे रवि के ,बस सोच रहे सुबह शाम 


स्वरचित एवं मौलिक

अलका शर्मा, शामली, उत्तर प्रदेश