युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
आज का युग देखने में कुछ और करे धरे कछु और है का हो गया है। देखने में सीधे सादे और भोले लगने वाले भी आजकल भरोसेमंद नहीं रहे। कलयुग है भाई। एक चेहरे पे कई चेहरे मौका देखकर लगाते हैं और अपना काम निकलवाते हैं। किसी सरकारी अधिकारी से काम निकलवाना हो तो मुखौटा दीन-हीं का लगा लेते हैं, गरीबी और अभावग्रस्त का ढोंग रचाते हैं। कम पियसे में काम निकलवाते हैं। उधर बाबू और अधिकारी सभी अपने चेहरे पर दीनबंधु का चेहरा लगाकर जताते हैं कि कम रिश्वत लेकर वे देश का ज्यों कल्याण कर रहे हैं।
मेरा पड़ोसी बड़ा मुखौटेबाज़ है। जब उसे मेरे गाड़ी की ज़रूरत पड़ती है ओ भागा भागा यूं आता है जैसे पहाड़ टूटकर उस पर गिर पडा है। एक घण्टे के लिए गाड़ी मांगकर दिन भर गायब रहता और खाली टंकी वाली गाड़ी मेरे सुपुर्द करता और कहता – काम में यूं फंसा था कि आते नहीं बना और एक सड़ियल सा मुखौटे वाले चेहरे पर कुटिल हंसी का लेप लगाए भाग जाता। यही शक्स जब मेरे टॉमी उसके आँगन के आगे भौंकता तो राक्षस सा चेहरा बनाए कुत्ते से भी जोरदार आवाज़ में भौंकता और मेरा कुत्ता सीनियर कुत्ते की भौंक से मौन साध लेता। आखिर बड़ों के प्रति आदर भी तो हो।
जब मेरे पड़ोसी के घर रिश्तेदार आते तो भारी सज्जनता का लबादा ओढ़े अनुरोध करता कि घर के पिछवाड़े में शाम को बैठने के लिए जो दीवान बिछा रखी है, उसे दो दिन के लिए देड़ूँ। ऐसा मुखौटा लगा चेहरा बनाता, लगता दीवान पलंग न दिया तो शायद मर जाएगा। और उसका चेहरा देखकर मना करने का भी मन नहीं करता। यह अलग बात है कि जब दीवान पलंग वापस मिलता कहीं न कहीं से हर पुर्जा ढीला मिलता। बढ़ई को बुलाकर अपनी जेब ढीली करनी पड़ती।
मुखौटे लगे चेहरे से लोग यूं जीते हैं जैसे प्यास लगे तो हम पानी पीते हैं। चेहरे पर तांगा मुखौटा आपके भीतर के रावण को छिपा देता है और बनावटी राम को दिखाकर काम चला लेता है। लोग कहते हैं कि वर्तमान युग विज्ञान का, तकनीक का और जेट का युगा है, पर मेरा मानना है कि यह मुखौटों का युग है अऔर लोग बाग मुखौटे बदलना यानी चेहरे पर चेहरा चढ़ाना खूब जानते हैं।
मेरे बॉस को जब मुझसे बहुत ज़्यादा काम ( जिसका मुझसे कोई संबंध नहीं) निकलवाना होता है तो बुद्ध का शांत, मंद स्मित वाला मुखौटा चेहरे पर लगाकर मुझे बुलवाता है। लगता है कि अभी अभी ध्यान लागाकर या तपस्या करके आया है। आवाज़ पीआर भी मृदु मधुरा शांति का लेप चढ़ाये प्यार से यूं बोलता है जैसे आप पर फूल बरस रहे हों। इसका असर यह होता है कि आप न चाहते हुये भी उस काम को पूरा करने का बीड़ा उठा लेते हैं। बिना ओवर टाइम छह सात घण्टे काम कर जाते हैं और थक कर घर लौटते हैं।
जब आप छुट्टी मांगने जाते हैं तो यही बुद्ध के मुखौटे वाला शख्स उग्र नृसिंहावतार का मुखौटा लगाए आपको बिना छुट्टी मंजूरी के अपने सीट पर लौटने को विवश करता है। यह अलग बात है कि दो दिन बाद आप अपने किसी रिश्तेदार की झूठी बीमारी से ट्रस्ट व्यक्ति का मुखौटा लगाकर छुट्टी हासिल कर लेते हैं।
एक बार मेरे गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ। एक शराबी रोंग रूट में आकर बाईक से मेरे कार को ठोंक दिया। दोनों ठाणे पहुंचे। वह शराबी उसी थाने के सिपाही का साला था। फिर क्या था उस सिपाही ने यमराज का मुखौटा डाला चेहरे पर और बस मेरी क्लास लेने लगा। सही होने के बावजूद मैं उनकी नज़र में दोषी मान लिया गया। जब बात सिर से ऊपर हो गई तो मैंने सज्जनता का मुखौटा उतारकर दंभी और पहुँच वाले व्यक्ति का चेहरा ओढा और अपने पत्रकार मित्रा को फोन लगाया। सारा वाकया बयान किया। पत्रकार मित्रा ने थाने का नंबर लिया और थानेदार को ऐसे हदकाया जैसे कि वह बी बी सी का वरिष्ठतम पत्रकार हो। अगले दिन पेपर में पूरी सही रिपोर्ट उनके फोटो समेत छपनी बात पर सारा थाना सज्जन मंडली की मुखौटा लगाए मेरे गाड़ी समेत मुझे घर पहुंचा गए और धन्यवाद दिया अलग से।
प्रश्न यह उठता है कि क्या बिना मुखौटे के जीना क्या संभव है? मेरा उत्तर होगा बिलकुल नहीं। सुबह आपको अखबार देने वाले से लेलकर रात में आपके अपार्टमेंट के चौकीदार तक सारे लोग मुखौटा ओढ़े अपना काम करने का एहसास कराते हैं। दूधवाला, सब्जीवाला, इलेक्ट्र्र्शियन, पानी का नल ठीक करने वाला, टेलीफोन मेकानिक, पोस्टमेन, कूरियरवाला, दफ्तर का चपरासी, आपका पड़ोसी, बॉस, दफ्तर के साथी, आपके तथाकथित दोस्त सभी मुखौटे में जीते हैं कि हमें उनका असली चेहरे को, उनके असली अस्तित्व वाले व्यक्तित्व को भी अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालकर याद करने की विफल कोशिश करनी होती है।
अब ऐसा माहौल हो गया है की आदमी के असली चेहरे क पहचानना मुश्किल हो गया है। चेहरे दिखते कुछ और हैं, और उनमें निहित भावना कुछ और होती है। मुझे लगता है साँसों कीटराह चेहरे पर अनगिनत मुखौटे लगे होते हैं, जो अवसर पाकर अपना फन दिखाते हैं, आपको नए नए हुनर से परिचित कराते हैं। मेरे एक मित्र हैं जो इधर साहित्य और समाज से उधर राजनीति और राकेट युग तक अच्छा खासा दखल रखते हैं। अपनी बीवी के पास यूं चेहरा बनाते हैं, जैसे उन जैसा भोला भाला और नादान बंदा तो दुनियाँ में है ही नहीं। पत्नी भी ठीक उन्हें इसके विपात=रीत पाती है, पर उन्हें भोला मानने के मुगालते में जीने दे रहीं हैं।
मित्र के सारे संबंध चाहे वे वैध हों या अवैध जानकारी रखती हैं और समय समय पर घर में इनकी बखिया उधेड़ती हैं। दोनों अलग अलग मुखौटे लगाकर पिछले पच्चीस वर्षों से तथाकथित सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मुखौटे के कई फायदे हैं। आप अपने आप को मुसीबतों से बचाने में कामयाब हो जाते हैं। नई मुसीबतों से आपका पाला कम पड़ सकता है। समय देखकर मुखौटे बदलने वाला ही आज सफल है। वरना कितना भी आप महान हों, ज्ञानी हों, ईमानदार हों, कर्तव्यनिष्ठ हों धरे के धरे रह जाएँगे और मुखौटा ओढ़े हर लालू, उल्लू और निठल्लू आगे बढ़ जाएँगे आप टापते रह जाएँगे।
नेताओं के स्पैशल मुखौटे होते हैं ! अलग अलग समय के लिए अलग-अलग मुखौटे । जब वोट लेने जाना हो तो हल्का मुखौटा, गधे को पापा और गधी को मम्मी कहते मुखौटे । प्यार, गुस्सा, डर, धन हर प्रकार का सिक्का चलाता हुआ। सीट मिलने के बाद एक और भारी मुखौटा चेहरे पर फिट हो जाता है। बहुत सारे मुखौटे नेताओं के लिए ही होते हैं ! वक्त की नज़ाकत को देखकर मुखौटा बदलने पर ही जीवन भर कुर्सी दामन नहीं छोडेगी और लक्ष्मी मुख नही मोडेगी !
ग्राह्कों को धोखा देने के लिए दुकानदार का अजीब सा चेहरा दिखाता मुखौटा बहुत ही कारगर होता है। सारे मुखौटों का समयानुसार सदुपयोग करने से कोई कठिनाई नहीं होगी !
एक-एक करके जीवन में अवसर के हिसाब से अपना मन पसन्द मुखौटा रखें ! सबके अपने अपने मुखौटे होते हैं । आफिसर हैं या चपरासी, मालिक हैं या नौकर, मास्टर हैं या विद्यार्थी, प्रोफेसर हैं या स्टूडेंट, लडका हैं या लडकी, सर्विस करते हैं या बिजनेस मतलब यह कि हर प्रकार के तथा हर किस्म के मुखौटे आजकल लोगों में अंदरूनी तौर प्पर अलग अलग अवसरों के लिए, माहौल के लिए बने बनाए हैं।
आलम यह है कि इन मुखौटों की वजह से आदमी का, इंसान का असली चेहरा न जाने कहाँ गुम हो गया है।
डॉ0 टी0 महादेव राव
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