युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
कहते हैं काटने वालों से प्रेंम की अपेक्षा चिलमिलाती गर्मी में बारिश की प्रतीक्षा करनी जैसी है। जिस तरह दाँतों की बत्तीसी में काटने, कुतरने और चबाने के दाँत अलग होते हैं, ठीक उसी तरह शहर में काटने, कुतरने और चबाने वाले किस्म के बाहुबलियों की भरमार है। नए कमिश्नर के बारे में सुनते ही ये सारे बाहुबली दाँत कमिश्नर रूपी जीभ को अपना गुण बताने लगे। मसलन काटने, कुतरने और चबाने की उनकी सिद्धहस्तता जनाब जीभ को कितना नुकसान पहुँचा सकती है। अनजान गली में घुस आने वाले कुत्ता और बाहुबलियों के बीच कमिश्नर दोनों की दशा एक सी थी।
कुछ बाहुबलियों ने कमिश्नर के गले में फूलों की माला पहनाकर स्वागत किया। साथ ही हिदायत दी कि यह फूल तब-तक स्वागत फूल हैं जब तक कमिश्नर का व्यवहार उनके अनुकूल रहेगा। उन्नीस-बीस होने पर यही फूल मैयत पर चढ़ाई जाने वाली माला बनकर उनके फोटो की शोभा बढायेगी। इतना कहते हुए बाहुबली वहाँ से चल दिए। यह सब देख वहाँ आए शहर के सभी सब इंस्पेक्टरों ने इशारों-इशारों में उन्हीं पानी की तरह बनने की सलाह दे डाली। कहा – यह शहर एक गिलास है और आप पानी।
जब तक तरल है, तब तक आपके लिए सब सरल है। ठोस बनने की कोशिश की तो तोड़ दिए जाओगे। वैसे छोटे बड़ों को उपदेश नहीं देते, लेकिन जब बात दुनियादारी की है, तो जिधर से मिले उधर से ले लेने में भलाई है। कमिश्नर को भी लगा कि ठोस बनकर कुटवाने से अच्छा तरल बनकर घुल-मिल जाने में भलाई है।
कमिश्नर यही सब कुछ सोच रहा था कि उसकी नजर एक ऐसे सब-इंस्पेक्टर पर पड़ी जो बाकियों से जुदा था। कमिश्नर ने उसे पास बुलाकर पूछा – तुम इन सबकी तरह कुछ सलाह नहीं देना चाहोगे? उसने झिझकते हुए कहा – साहब! मेरी सोच इन सबसे अलग है। मैं कुछ कहूँगा तो आप बुरा मान जायेंगे। कौओं के बीच कोयल के चुप रहने में ही भलाई है। मैं चावल में कंकर नहीं बनना चाहता।
कमिश्नर के बार-बार आग्रह करने पर उसने कहा - साहब! मैंने अब तक की मेरी ड्यूटी में हराम का एक रुपया नहीं खाया। अपना भोजन भी घर से लाता हूँ। रिश्वत से कोसों दूर रहता हूँ। यही कारण है कि कोई मुझे डराना तो दूर मेरे पास फटकने का साहस भी नहीं करता। ऐसे व्यवहार से स्थानांतरण हो सकते हैं लेकिन आपके आत्मसम्मान को कोई ठेस नहीं पहुँचा सकता।
कमिश्नर उसकी बातें सुन हँसकर रह गया। अगले दिन उस ईमानदार सब इस्पेक्टर का स्थानांतरण ऐसे दूर-दराज इलाके में कर दिया गया जहाँ से उसकी आवाज़ वह चाहकर भी नहीं सुन सकता था। कमिश्नर दाँतों के बीच जीभ बनकर घुलमिल चुका था।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657