बीमारी पुरानी इलाज नया

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

 मनोहर बाबू नहा-धोकर तैयार हुए ही थे कि उनकी पत्नी ने उन्हें 'गुड मॉर्निंग' कहा। उन्होंने आश्चर्यचकित होकर देखा तो उनकी अर्धांगिनी भी मुस्कुराने लगी। उन्होंने पत्नी की नब्ज़ टटोली। एनओसी मिल गई तो उन्होंने खुद को संभाला और पूछा- “क्या बात है देवी! कुछ चाहिए क्या? मुँह फुलाकर रहने वाली तुम न एजी कहा न ओजी...सीधे अंग्रेजी में गुड मार्निंग। तबियत तो ठीक है न। कहीं मेरी जेब पर डाका मारने का इरादा तो नहीं है न?”  

“अब मुझसे खाली जेबों पर डाका नहीं डाला जाता। जब तक आप शाम को दोस्तों के साथ बैठने की आदत छोड़ नहीं देते, तब तक आपकी जेब की ओर देखने की जरूरत नहीं है।” पत्नी ने तंज कसते हुए कहा।

“मैं बाहर जरूर रहता हूँ लेकिन शराब पीने के लिए नहीं... अपनी कविताएँ सुनाने के लिए। वह क्या है न कि हमारे मित्र कविता के कद्रदान हैं। उनके पास कविता सुनाने वालों की भीड़ लगी रहती है। वे एक बार बढ़िया, शानदार, वाह-वाह शब्दों का ठप्पा लगा दें तो समझो कविता लिखना सफल हुआ। रद्दी-भद्दी-चिंदी कविताएँ सुन-सुनकर उन्हें ‘पोएमेरिया’ की बीमारी हो गई है।

 इसके लिए शराब के सिवाय कोई दूसरी दवा नहीं है। और यह दवा फोकट में मिलती तो है नहीं! इसीलिए भुगतान करना पड़ता है। वैसे इस बीमारी में मेरा योगदान भी रेखांकित करने योग्य है। मुझे सुबह, दोपहर, शाम और रात की तर्ज पर चार-चार कविताएँ लिखने की आदत हो गई हैं। जब से मुझे कुछ इस तरह से कविता लिखने की खुजली हुई है तब से मेरे सहकर्मी और जान-पहचान के लोग बीमाकर्मी से अधिक खतरनाक मानने लगे हैं।

 उन्हें मुझे छूना तो दूर देखने से भी छुआछूत की मानिंद बीमारी फैलने का डर सता रहा है। अब वे मेरे साथ उठते-बैठते नहीं हैं। इसीलिए शाम को अपने ‘भुगतान करो कविता सुनाओ’ वाले मित्रों की शरण में चला जाता हूँ। उन्हें भुगतान कर अपनी कविता सुनाकर अपनी चुल मिटाता हूँ। उन्हें शराब पीते समय कविताएँ सुनने और मुझे सुनाने की आदत हो गई है। तुम जानती ही हो कि आजकल कविता सुनने वाले लोग कहाँ मिलते हैं।” पति ने किसी दार्शनिक की तरह अपना दुखड़ा रोया।

"क्यों! आपके वो एक मित्र हैं न फुर्सतचंद, जो फोकट में सुनते हैं। उनके रहते आपको यहाँ-वहाँ मुँह मारने की क्या जरूरत है?' पत्नी ने पति की बातों में मज़े लेते हुए पूछा।

“पता चला है किसी जलककुड़े ने उनके कान भर दिए कि आप फोकट में किसी की बेफिजूल क्यों सुनते हैं? इसीलिए आजकल वे हारे हुए उम्मीदवारों का दुखड़ा सुनते हैं। हारे हुए उम्मीदवार कार भेजकर उन्हें अपने घर बुलाते हैं। आवभगत अलग से। एसी में बैठकर छप्पन भोग वाली थाली छकते हुए हूँ...हूँ करते हुए पूरा किस्सा सुनते हैं। बीच में पॉवर नैप भी मिलता है। ऊपर से मोटी रकम अलग से!!"

तभी दरवाज़े पर किसी ने आहट दी। उन्होंने अपना परिचय प्रचार कुमार के रूप में बताया। उन्होंने कहा - “हमारे गली साहित्य की दुनिया में आपका नाम बड़ा है। लोगों को भले ही पता न हो लेकिन ‘आग जला’ समाचार पत्र में आप चंदा देकर नियमित छपते हैं। वह भी पहले पन्ने पर।  

मजबूरी में ही सही आपकी कविता हमें पसंद करनी पड़ती है। सुना है आपके पास खानदानी संपत्ति की कोई कमी नहीं है। दरअसल मैं सरकार के खासे करीब हूँ। चाहता हूँ कि आपकी कोई कविता स्कूली पाठ्यक्रम में लगाया जाए।“

“अरे आप खड़े क्यों हैं? बैठिए न। चाय-नमकीन मंगाता हूँ। बैठकर बात करते हैं। इतने दिनों तक मैं फुटकर समाचार में छपने को ही अपना भाग्य मानता रहा। एक बार मेरी एक कविता पाठ्यक्रम में लग जाए मैं फिर कभी इन समाचार पत्रों के लिए नहीं लिखूँगा।''

“अरे ऐसा न कहें। यहीं तो वे समाचार पत्र होते हैं जहाँ हमें छपासखोर के साथ-साथ मालदार लोग मिल जाते हैं। नामचीन समाचार पत्रों में छपने वाले बड़े घमंडी और नकचढ़ऊ होते हैं। भला हो इन फुटकर समाचार पत्रों का जो हम जैसे कद्रदानों से भेंट करवा देता है।”

इतना कहते हुए दोनों ठहाके मारकर हँसने लगे।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657