स्वतंत्रता संग्राम और अम्बेडकर

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

आज हम आजादी का 76 वां दिवस मना रहे हैं।सारे लोगों के मन में उमंग है, तरंग है।लोग अपने अपने तरीके से स्वतंत्रता दिवस को मना रहे हैं।बहुत से ऐसे लोग भी हैं जिनके नजरों में बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जी स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे।इस बात को मैं उनका जातिगत नजरिया ही कहूंगा क्योंकि भीमराव जी को दो दो मोर्चे पर लड़ना पड़ा था।एक तो अंग्रेजों से तो दूसरी तरफ देश में हजारों सालों से व्यवस्था, नियम, व्यवहार पर काबिज जातिय गर्वता से ओतप्रोत लोग थे जिन्हें तथाकथित अस्पृश्य, दलित, शूद्रों से घृणा थी।

उनके चले रास्ते पर चलते नहीं थे, छाया से भी नफरत करते थे।बाबा साहब ने स्वयं बहुत सारे अत्याचारों को झेला था।स्कूल में अलग बैठना, पानी के घड़े न छूने देना, बैलगाड़ी, तांगे, रिक्शे में न बैठने देना, छत्रपति शाहू जी महाराज के राज्य के चपरासी द्वारा फ़ाइल फेंककर देना आदि अनेक उदाहरण है।जबकि विदेशों में जातियता के नाम पर कोई भेदभाव नहीं होता था।

आज लोग उन्हें सिर्फ संविधान निर्माता के रूप में जानते हैं।सरकार में रहकर सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने की क्षमता सिर्फ अम्बेडकर जी में था।अस्पृश्यों के उद्धार के लिए उन्होंने सन 1919 में मुकनायक नामक पत्रिका के जरिये जागृत करने का प्रयास किया।सन 1930 में मंदिर में प्रवेश के लिए सहयोगियों के साथ सत्याग्रह किया।चवदार तालाब से पानी पीने के लिए आंदोलन किया क्योंकि तब अस्पृश्यों को तालाब का पानी छूने का अधिकार नहीं था।एक विद्वान के रूप में उनकी प्रतिष्ठा के कारण ही वे स्वतंत्र भारत के कानून मंत्री व संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष भी रहे।वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्षधर थे और जातिगत समाज की आलोचना करने से नहीं हिचकते थे।

आधी आबादी यानि स्त्री वर्ग को कोई अधिकार नहीं था।उनके लिए बाबा साहब ने हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया लेकिन उस समय के लोगों की सोच के कारण हुए भारी विरोध के चलते उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।जाति पांति, छुआछूत के विरोध में उन्होंने मनुस्मृति नामक ग्रंथ का दहन भी किया था। 1951 में छुआछूत से तंग आकर बौद्ध धर्म अपना लिया। 06 दिसंबर 1956 को उनका महापरिनिर्वाण हुआ। 1990 में उन्हें भारत-रत्न सम्मान से नवाजा गया था।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छ ग