प्यारे स्वप्न देश के वासियो!

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

चूंकि मैं मगरमच्छ को कांख में दबा नहीं सकता, हिमालय पर तपस्या कर नहीं सकता, दस लाख का सूट पहन नहीं सकता, फलां जगह पर लड़की नंगी घुमाई जा रही हो और मैं उस जगह का दौरा कर नहीं सकता, विदेशों में घूमने की आदत से बाज़ नहीं आ सकता, चाय बेच नहीं सकता, बेटी बचाओ बेटी पटाओ बोल नहीं सकता इसलिए प्रधानमंत्री बनना मेरे लिए हर की पौड़ी है। मैं स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश के नाम संदेश तो नहीं सपने में अपने देशवासियों को कुछ न कुछ संदेश दे ही सकता हूँ। फिलहाल सपना देखना जीएसटी से मुक्त है। पता नहीं इस पर कब टैक्स लग जाए भलाई इसी में है कि उससे पहले अपना संदेश सुना दूँ -  

प्यारे स्वप्न देश के वासियो!

जैसे मंगल ही कुशल-क्षेम का प्रतीक है, वैसे स्वतंत्रता भी स्वतंत्रता का प्रतीक है। मैं यहां स्वतंत्र हूं और आशा करता हूं कि आप भी वहां स्वतंत्र होंगे। पिछले कई वर्षों से मैं स्वतंत्रता दिवस आने के कई दिन पहले से व्यस्त हो जाता हूं। बेटी 15 अगस्त को होने वाली भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लेती है। उसे तैयारी करानी होती है।

 पहली बार तो मैंने उसके इस तरह की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का पुरजोर विरोध किया था, किंतु जब वह अपने आप ही तीसरा स्थान पाकर रंगीन पेंसिलों का एक सेट जीत लायी तो मेरी भी इसमें रुचि बढ़ी। इसके बाद से मैं उसका भाषण मोहल्ले में ग्रुप-1 की तैयारी करने वाली लड़की से लिखवा देता हूं। लगातार दो बार से वह भाषण प्रतियोगिता में एक हजार एक सौ सोलह रुपये का इनाम जीत रही है। इससे मेरा भी काम कुछ आसान हो जाता है और उसकी मां को भी देशभक्ति की फीलिंग आती है।

ग्रुप-1 की तैयारी करने वाला लड़की शांत चित्त की है। पिछले पांच साल से लगातार असफल प्रयासों के बाद भी उसकी निराशा खतरे के निशान तक पहुंचने वाली होती है कि अखबारों में नौकरियों की खबर उसे थाम लेती हैं। मुझे जब भी उससे स्वतंत्रता दिवस पर भाषण लिखाना होता है, मैं उससे कहता हूं कि अगर आरक्षण न होता तो तुम अब तक पांच-सात तहसीलों के डिप्टी कलक्टर रह ली होती। वह मेरी बेटी का भाषण लिख मेरी बात पर सहमति जता देती है। हालांकि अगर मैं किसी आरक्षण समर्थक के पास किसी काम से जाता हूं तो आरक्षण की उपयोगिता पर बढ़िया विचार रख लेता हूं। मेरे विचार बिल्कुल स्वतंत्र हैं, वे विचारधारा के किसी भी बर्तन में समा जाते हैं। मैं बिन पेंदी का लोटा हूँ। माहौल को देखकर लुढ़क जाता हूँ।

बेटा अभी छोटा है। सिर्फ तिरंगे के लिए जिद करता है। सुनने में आया था कि प्लास्टिक वाले तिरंगे पर रोक लग गई है, किंतु मैं पहले ही उसके लिए दो तिरंगे ले आया। झंडे बेचने वाले को मैंने नसीहत भी दी कि उसे प्लास्टिक के झंडे नहीं बेचने चाहिए। मेरे ज्ञान से बचने के लिए उसने मुझे एक तिरंगे का स्टीकर मुफ्त दे दिया। मुझे वह सूक्ति याद आई कि तलवार से तेज जुबान होती है और जब जुबान पागल हो जाए तो उससे पिंड छुड़ाने के लिए सामने वाला घाटे का सौदा कर सांस में सांस लेता है।  

मैं स्वयं राजस्व विभाग का कर्मचारी हूँ और कायदे में मुझे अपने दफ्तर में होने वाले झंडारोहण में शरीक होना चाहिए, किंतु उस दिन लेन-देन न होने के कारण वहाँ जाना व्यर्थ होता है। इसलिए इससे बचने के लिए मैंने पड़ोस के प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर साहब को सेट कर लिया है। वे मुझे बिना गए ही अपने विद्यालय के झंडारोहण कार्यक्रम में शामिल होने का प्रमाणपत्र दे देते हैं, जिसे मैं अपने कार्यालय में जमा करा देता हूँ, ताकि किसी ऊंच-नीच की स्थिति का सामना न करना पड़े।

प्रधानाध्यापक और ग्राम प्रधान बहुत भले और दुनियादारी वाले हैं। दोनों स्कूल के मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी के आरोप झेलते रहते हैं, लेकिन 15 अगस्त को जब सारे लोग दो लड्डू में निपटा रहे होते हैं, स्कूल में चार लड्डू के साथ जलेबी भी बंटती है। बच्चे तो बच्चे, उनके माता-पिता भी पनियल दाल को भूल जलेबी की मिठास में डूब जाते हैं। ग्राम प्रधान के विचार बहुत स्पष्ट हैं। वे कहते हैं कि 15 अगस्त के दिन कोई कमी नहीं होनी चाहिए, ऐसे अवसर बड़ी मुश्किल से आते हैं।

मेरा वे लोग इसलिए भी सम्मान करते हैं कि मैंने एकाध बार उल्टा फहरा दिये गए झंडे को सीधा करा के उन्हें अख़बारों के उन फोटोग्राफरों से बचाया जो संपादकों के दबाव में किसी उल्टे झंडे की ताक में रहते हैं। झंडारोहण और लड्डू वितरण की रूटीन खबरों में उल्टा झंडा एक्सक्लूसिव होता है। फोटोग्राफर इन पर गिद्ध दृष्टि जमाए रहते हैं और ऐसे संस्थान आसानी से इनका शिकार हो जाते हैं।

यह अलग बात है कि पिताजी ग्राम प्रधान की सहृदयता का कारण कुछ और मानते हैं। उनका कहना है कि प्रधान तुम्हारे झंडा सीधा करने के कारण तुम्हें भाव नहीं देता है, बल्कि मैंने नोटबंदी के समय अपने खाते में जो उसके पांच लाख रुपये जमा कराए और बाद में बिना पांच फीसदी कमीशन लिए वापस कर दिए, ये उसका नतीजा है। प्रधान के कालेधन को सफेद करने में कोई कमीशन न लेने का उन्हें आज भी अफसोस है।

वैसे ग्राम प्रधान जो कर सकता था उसने किया। पत्न के स्थान पर स्वयं प्रधान बन बैठा है और अपात्र होते हुए भी उसने मेरी माताजी की वृद्धावस्था पेंशन की सिफारिश की है। इसके लिए उसने लिखा है कि सरकारी नौकर बेटा इनका बिल्कुल ध्यान नहीं रखता, ये निराश्रित हैं और इन्हें पेंशन की सख्त जरूरत है। मैं मातृ-पितृ भक्त हूं। उनका पूरा ख्याल रखता हूं। यह मजमून देख मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन पेंशन की रकम ध्यान में आते ही मन से यह कुविचार जाता रहा। अगर ऊपर के अधिकारी भी नियमपूर्वक काम करेंगे और सत्यापन जैसी भौतिक चीजों में नहीं उलझेंगे तो माताजी की पेंशन आने लगेगी।

माताजी की ड्यूटी आजकल खेतों से गाय-सांड़ भगाने की लगी है। गौरक्षा का असर है कि पूरा गांव चलती फिरती गौशाला में तब्दील हो गया है। चारागाह की ज्यादातर जमीन पर पहले ही कब्जे हो चुके हैं। जिन पर नहीं हुए हैं उन पर जल्द हो जाएंगे। लेखपाल और तहसीलदार इसी सिलसिले में अक्सर गांव आते रहते हैं। सरकार को चाहिए कि खेतों का एक हिस्सा आवारा पशुओं के लिए निर्धारित कर दे। सरकारी नियम बन जाएगा तो लोग मानेंगे ही। अभी स्कूल में राष्ट्रगान चल रहा था कि एक जन को बीच में ही खेत में सांड़ भगाने जाना पड़ा। वो तो कहो सिनेमाहाल नहीं था नहीं तो बेचारे पिट भी जाते।

मुझे तो बस इस बात का डर है कि अम्मा अपनी पेंशन वाली बात सरस्वती चाची को न बता दें। अभी उनके लड़के ने मनरेगा का पैसा ठीक से न मिलने पर प्रधान और ग्राम पंचायत अधिकारी की शिकायत कर दी है। नाराज प्रधान ने सरस्वती चाची की पेंशन के कागज ही नहीं भेजे। अब अगर उनके बेटे ने कुछ बखेड़ा खड़ा किया तो बना-बनाया काम बिगड़ जाएगा। बड़ी मुश्किल है। देश की व्यवस्था देख मन बड़ा खिन्न है। देशभक्ति के दो चार गीत सुन लेता हूँ या फिर दो-चार मच्छर मारकर खुद को देश का सेवक घोषित कर लेता हूँ। इससे देशभक्ति का बीपी लेवल मेरे शरीर में कमोबेश बना रहता है।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657