मगर सिर्फ अकेले में...

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

तुम पहचानते हो मुझको

मगर सिर्फ अकेले में,

जब पड़ती है मुझे ज़रूरत

तुम नाता तोड़ लेते हो,

तुम जानते तो हो मुझको 

मगर सिर्फ अकेले में,

जब पड़ती है दुनियां कि नज़रें

तुम मुँह मोड़ लेते हो।

शायद तुम मानते भी हो मुझको,

मगर वो भी सिर्फ अकेले में,

भीड़ में करके किनारा मुझसे,

औरों से खुद को जोड़ लेते हो।

स्वार्थ तुम्हारा समझ से परे है,

पर निःस्वार्थ भाव मुझमें भरे हैं,

मैं मूढ़ हूँ और पसंद है मुझको मूढ़ता,

पर इक हद तक है सहनशीलता,

गुमान नहीं करती हूँ स्वयं पर

मगर दोस्ती सच्ची निभाती हूँ,

शौक नहीं हर किसी का हाथ थाम

आसमान में उड़ना ,मगर

निज अस्तित्व से समझौता न कर पाती हूँ।

एक चीज बहुत प्यारी है मुझको,

वो है मेरा स्वाभिमान।

जब कोई करता है इसपर चोट,

मैं वापस लौटकर न आती हूँ।

डॉ. रीमा सिन्हा

(लखनऊ )