बेपनाह इश्क

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क


हां मेरे अंदर इश्क था ।

वही बेपनाह बेइंतहा,

जो गढ़ा न जा सका कविताओं में 

जो बांधा न जा सका ग़ज़लों में 

जो बयां न हो सका कभी शब्दों मे

जो कभी उकेरा न गया हर्फों में

बस पलता रहा मेरे अंतस की गहराइयों में 

वही बेपनाह,बेइंतहा इश्क,

हां मेरे अंदर इश्क था ।


जिसे भुलाया न जा सका सालों में

संग जिया न सका जिसे कभी लम्हों में 

रहकर खुश हुआ न जा सका जो कभी तेरी सोहबतों में 

जिसे गिना ना जा सका समंदर लहरों में

जिसे भिगोया ना जा सका बारिश की बुंदों में 

बस सिसकता रहा 

सुलगता रहा,बिन चिनगारी 

मेरे अंतस की गहराइयों में

वहीं बेपनाह, बेइंतहा इश्क ,

हां मेरे अंदर इश्क था ।


रिक्त करता रहा मुझे दिन व दिन

झांकता रहा मेरे उर के दरीचे से 

करता रहा इन्तज़ार

उस एक विरल इश्क का

जिसे तुम कभी समझ न सके 

देती रही मैं अनगिनत कुर्बानियां

मेरे कुर्बतों का कभी कद्र तुम कर न सके

उसी इश्क का इम्तिहान लेती रही ज़िन्दगी

पनपता रहा जो मेरे अंतस की गहराईयों में

पसारता रहा अपनी जड़े मेरे दिलों, दिमाग में

करता रहा इन्तज़ार 

वहीं बेपनाह, बेइंतहा इश्क ,

हां मेरे अंदर इश्क था ।


अर्चना भारती

पटना (सतकपुर,सरकट्टी) बिहार