गिन दिया वो लाख कमियां
चल दिया वह छोड़ कर,
रह गई मैं निर्जीव सी
मेरी आत्मा को मारकर।
चकित गया दृग जल भी
दृश्य मेरा वह देखकर,
मेरी सिसकियां भी सहम उठी
संस्कारों से लाज कर ।
खुश हुई थीं मौत भी
मुझे उस घड़ी दुत्कार कर,
धिक्कार रही थी जिंदगी को
मैं मौत से भी जीत कर।
लालसा थी स्वर्ग की
पर वहां नर्क भी,
बैठा पड़ा था
द्वार अपना बंद कर ।
संवेदना भी मर गई थी
मेरी वेदना से हार कर,
विदीर्ण हो गया था हृदय भी
तिरस्कारों के सबब पर।
काठ बन मैं रह गई थी
जिजीविषा को त्याग कर,
क्या दर्ज़ नहीं थे सुकर्म मेरे
या फेंक दिया तू फाड़ कर।
तू ही बता दे ऐ हरी
भेज दिया तू क्यूं मुझे
मुझसे मोह सारे छीन कर ।
अब इल्तज़ा सुन ले मेरी रब
मनमानियां तेरी छोड़ कर
गढ़ दे तू मेरा रूप कोई
बस इक तन मानुष का छोड़कर।।
अर्चना भारती
पटना (सतकपुर,सरकट्टी) बिहार