दोहरी जिंदगी

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

कल मैंने एक वीडियो देखा। दो-तीन युवक मिलकर एक लड़की को बेरहमी से पीट रहे थे। कहते हैं जब समाज की आँखें नीचीं हो जाएँ तब ऐसी ओछी हरकतें परवान चढ़ती हैं। वीडियो देखने के बाद मुझे उन युवकों पर गुस्सा तो आया लेकिन कर भी क्या सकता था? अरे-अरे, पाप बिचारी जैसे अमूल्य शब्दों का प्रयोग कर उसके प्रति अपनी सहानुभूति जताई। मेरा मानना है कि मानवता की बुझती अग्नि में ऐसे शब्द घी सा काम करते हैं। वरना एक हाथ में चाय का कप, दूसरे में मोबाइल धरे किसके पास सहायता के लिए हाथ बढ़ाने का यहाँ समय है? चाय को होंठों पर और उंगलियों को मोबाइल पर नचाने जैसे बहुत जरूरी काम भी तो होते हैं। इतने जरूरी काम छोड़कर भला कोई अपना समय क्यों खोटी करेगा? फिर भी मैंने समय खोटी किया और कोरे कागज को काला कर डाला।

मैंने ध्यान दिया कि सामने वाले कमरे में मेरी बिटिया भी कुछ लिख रही थी। दो महीने पहले ही उसकी शादी हुई थी। उसके पास महंगा फोन था, फिर लिखने की क्या जरूरत थी। ध्यान से देखा तो फर्श पर दो-तीन पेपर पड़े हुए थे। उठाकर देखने पर सब में पापा लिखा हुआ था, लेकिन बाकी का मैटर काटम-कूटी की भेंट चढ़ चुका था। उत्सुकता बढ़ी। चुपके से पीछे जाकर खड़ा हो गया। वह लिख रही थी, पापा! मैं केवल पंद्रह बरस की हूँ। ठीक से चलना तो दूर खड़ा होना तक नहीं जानती। ऐसी बिटिया को जमाने की दौड़ में ठेलते हुए आपको मुझ पर तनिक भी दया नहीं आई। जिन हाथों को कलम पकड़ना चाहिए था, उन्हें रसोईघर में कलछुल, पल्टा, सड़सी पकड़ना पड़ रहा है। खिलखिलाता चेहरा जबरन ब्याह से मुरझा गया है। 

बेशर्म आँखें दुख और सुख दोनों में सजल हो उठती हैं। कभी मेरी आँखों में आँसू की एक बूँद भी आपको बेचैन कर देती थी। अब वहीं मेरी सजलता आपको खुशी के आँसू लगते हैं। सहेलियों के संग कॉलेज जाने की उम्र में मुझे ससुराल भेज दिया। अब मैं नलकूप से पानी लाती हूँ। मैं समझती थी कि पढ़ने से आदमी कुछ बनता है। आपने तो शादी को ही एक उपलब्धि बना डाला। माँ के आँचल और पापा की उंगली से सुरक्षित वस्तु इस दुनिया में कुछ और नहीं हो सकती। लेकिन मैं ही आदान-प्रदान की वस्तु बन जाऊँगी, ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था। 

प्यारी गुडिया कहकर मेरे माथे पर दी हुई आपकी चुम्मी की नमी अभी सूखी भी नहीं थी कि आपने मुझे पराया बना दिया। गिरगिट जितनी तेजी से रंग नहीं बदलता, उतनी तेजी से आपको रंग बदलते हुए देखा है। पापा आप सच में महान लेखक बन गए हो। जैसा लिखते हो वैसा दिखते नहीं हो। पापा आप दोहरी जिंदगी जीने के आदि हो चुके हो। आपकी कथनी की जिंदगी करनी की जिंदगी से एकदम जुदा है। आँखें आँसुओं से तर थी। सोचा रानी बिटिया पत्र मुझे देगी। यदि ऐसा होता तो मैं खुशी मनाता। दुर्भाग्य से वह सुख भी प्राप्त न हो सका। अंत में उसने लिखा, सेवा में संपादक जी, एक्सवाईजेड समाचार पत्र, भोपाल। प्रेषकः अनामिका।  

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657