(अ) क्षर माला

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

नोट से चीप, आलू से सोना और टेस्ट ट्यूब बेबी से सीता मैया को ढूँढ़ निकालने के बाद जो अपार सफलता मिली, उसके लिए मैं हृदय की गहराई से आप सभी का आभार व्यक्त करता हूँ। मुझे पता है कि आप भी मुझे बधाई देना चाहते है, किंतु आपके पास शब्दों की कमी पड़ रही है।

 इसीलिए मैंने अक्षरों की ओर दृष्टिपात किया है।  सुना है अक्षर जन्म और मृत्यु के खेल से परे होते हैं। सोचा क्यों न मैं भी अक्षरों पर एक कवर स्टोरी बना दूँ। अब तो हर सच्चाई कवर होने लगी है। जीवन में किसी न किसी को कभी न कभी अवश्य कवर करना चाहिए, वरना हमें कवर करने वाला दुनिया में कोई नहीं बचेगा।

बहुत दिनों के बाद मैंने अक्षरमाला को बड़े ध्यान से देखा। पिछली बार 2011 के आसपास देखा था। मात्र देखने का परिणाम यह हुआ कि देश का साक्षरता दर सत्तर पार हो गया। मैंने देखने में कभी कमी नहीं की। यही कारण है कि यहाँ जितने डॉक्टर और इंजीनियर बनते हैं उससे कहीं ज्यादा बाबा उभरकर आते हैं। हमारी साक्षरता पढ़े लिखों में बेवकूफों और बेवकूफों में पढ़े लिखो का संतुलन बनाए रखती है। 

हाँ तो मेरी बात अक्षरमाला पर हो रही थी। मानो मुझे ऐसा लगा कि चुनिंदा शहरों के साथ-साथ अक्षरमाला को भी स्मार्ट सिटी का दर्जा दे दिया गया है। अक्षरमाला के शहर में स्वर, व्यंजन, गला, मूर्धा, तालू, दाँत, होंठ जैसी अलग-अलग बस्तियाँ काफी हाई-फाई हो गयी हैं। तालू के मोहल्ले में दाँत वाले मोहल्ले का कोई छोकरा घुस आए तो दाँतों की बत्तीसी तोड़ने के लिए तलुआ गैंग के अक्षर डटकर खड़े रहते हैं।

मैंने देखा कि कुछ अक्षर बदन पर आभूषण की प्रदर्शिनी लगाए प्रशंसा पाने की होड़ में है। कुछ अक्षर भजन, कीर्तन करते हुए फलाँ-फलाँ का नामस्मरण कर रहे हैं। उन्हें पूरा विश्वास है कि जिनके लिए यह भजन, कीर्तन हो रहा है वे उन्हें असली अक्षर होने का दर्जा देंगे। कुछ अक्षर तो अपने अगल-बगल में इतर लगाए सभी को अपने गंध के मोह में फांसना चाहते हैं। पुरस्कार हथियाना चाहते हैं। 

कुछ अक्षर अपने बदन पर धर्म, जात-पात, रीति-रिवाज का वर्ण पोतकर शाल ओढ़वाने के लिए बेताब हैं। कुछ अक्षर तो सिजेरियन ऑपरेशन से जबरन बाहर आए किसी तितली के समान प्रतीत होते हैं। जब मन चाहा तब, जिस पर चाहा उस पर गए और मंडराए। अपना जलवा बिखेरने लगे।

कुछ अक्षर तो इसलिए जन्म लेते हैं कि उनके भाग्य में दूसरों के द्वारा रौंदना लिखा होता है। दुनिया भर का अपमान मात्र अस्तित्व की पहचान के लिए सह लेते हैं। बावजूद इसके कई रौंदे जा रहे हैं और कई विलुप्तता के कगार पर खड़े हैं। अक्षरों की महानगरी मात्राओं की बिल्डिंगों से पटी पड़ी है, जहाँ केवल अहं की मात्रा दिखाई दे रही है। अक्षरों की मात्रा तो कब की मिट चुकी है।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657