मैं बचूँगा कि नहीं

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

नदी किनारे एक पेड़। उसकी एक डाल। डाल भी है बड़ी कमाल। नदी की गहराई पर छाया बनकर लटकी हुई। उस पर मैं लटका हुआ। उसी डाल पर एक जहरीला साँप। वह डँसने को मेरी ओर बढ़ता हुआ। नीचे मगरमच्छ। मुँह बाए हुए। हाथ मेरे कमजोर। किसी भी क्षण डाली छूट सकती है। किनारे पर एक बाघ। पंजे को घांस पर रगड़ता हुआ। शायद और धारदार करना चाहता है। धार? किसके लिए? मेरे लिए? मैं तो बिना धार के भी मर सकता हूँ। पाठकों से निवेदन है कि पेड़ को देश, साँप को महंगाई, मगरमच्छ को बेरोजगारी और बाघ को भ्रष्टाचार पढ़ें। अब बताएँ मैं बचूँगा कि नहीं?

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657