राखी की फैली महक,बँध जाने के बाद।
रक्षा की थी बात जो,फिर से वह आबाद।।
नेहभाव पुलकित हुए,पुष्पित है अनुराग।
टीका,रोली,आरती,सचमुच में बेदाग।।
मीलों चलकर आ गया,इक पल में तो पर्व।
संस्कार मुस्का रहे,मूल्य कर रहे गर्व।।
अनुबंधों में हैं बँधे,रिश्तों के आयाम ।
मानो तो बस हैं यहीं,पूरे चारों धाम।।
सावन तो रिमझिम झरे,बाँट रहा अहसास।
बहना आ पाई नहीं,भैया हुआ उदास।।
एक लिफाफा बन गया,आज हर्ष-उल्लास।
आएगा कब डाकिया,टूट रही है आस।।
भागदौड़ बस है बची,केवल सुबहोशाम।
धागे ने सबको दिया,नवल एक पैग़ाम।।
खुशियों के पर्चे बँटे,ले धागों का नाम।
बचपन है अब तो युवा,यादें करें सलाम।।
दीप जला अपनत्व का,सम्बंधों के नेग।
भावों का अर्पण "शरद",आशीषों का वेग।।
-प्रो० (डॉ०) शरद नारायण खरे