खिड़की से झांकता चांद,
मानस में उतर रहा।
आधी रात्रि का शमां,
नींद को ढूंढ रहे नयन।
तन्हाई साथी बने,
तरन्नुम बनी धड़कनें।
जाने किस ओर चला,
ये मन बावरा।
पीछे छूटी गलियां,
मन बावरा ख्यालों में
आज भी रहता वहीं।
जिन गलियों में
रहगुजर है रोजाना,
ये कभी अपने से न लगे,
बेगाने ही रहे।
खिड़की से झांकता चांद,
अपना सा लगता,
ये झिलमिलाते सितारें,
बचपन के साथी हो जैसे।
खामोशियों के मेले लगे है,
दिल की गलियों में।
रूह सरोवर है चांद की
चमकती चांदनी में।
(स्वरचित)
सविता राज
मुजफ्फरपुर बिहार