ज़िंदगी जीते ही बचपन को जवानी आई
इक ज़रा रुक गया तो तन पे ख़िज़ानी आई
इस तरह हमने निभाई है ये साँसें अपनी
कर्ज़ जीवन का मैं जैसे की चुकानी आई
खुद ही जलते रहे औरों के सितम में हम पर
आग जीवन में किसी के न लगानी आई
इतनी थोड़ी सी मुलाकात हुई थी उनसे की
देनी उनको न हमें कोई निशानी आई
बाद मुद्दत के ज़रा देखा तुझे जो दिलबर
इश्क़ की मुझको वही याद पुरानी आई
प्रज्ञा देवले✍️