धरा और अम्बर के मध्य प्रेम का अनुबंध हो तुम,
ध्वनित मेरी श्वासों के वीणा का छंद हो तुम।
शोणित शिराओं से प्रवाहित प्रीत के हो धुन,
सुवासित जिससे मन मधुवन वो मकरंद हो तुम।
कोरे कागज़ पर वेदनाओं के अंगुष्ठ का छाप हो तुम,
शीत से आकुल रमणी की अविचल ताप हो तुम।
मेरी खुशियाँ मेरे दुःख सब की परिधि तुम तक,
खो गये थे जो सुर कभी उनके मृदु आलाप हो तुम।
रीमा सिन्हा (लखनऊ)