संगीत का महत्व

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

भारतीय सभ्यता और संगीत के उद्भव, उत्थान और विकास में संगीत का अप्रतिम योगदान है। संगीत एक ललित कला है जो गायन, वादन और नृत्य के सम्मिश्रण का अद्भुत संगम है। संगीत आत्मा एवं ह्रदय को आनंद से सराबोर कर देने वाला अनुपम माध्यम है जो व्यक्ति को आंतरिक अलौकिकता के दर्शन कराता है।

संगीत का उद्भव 'ऊँ' नाद से हुआ है। 'ऊँ' नृत्य एवं संगीत के प्रणेता भगवान शिव का आगम स्त्रोत है। विभिन्न नादों में से कर्णप्रिय श्रुतियों के मंथन से उत्पन्न सुमधुर 12 स्वरों के मेल से समूचा संगीत उत्पन्न हुआ है। संगीत अपने दो स्वरूपों में दिव्यता का अनुभव कराता है। संगीत के दो रूपों का उल्लेख भारतीय संगीत महाकाव्यों में देखने और पढ़ने को मिलता है।

(1) मार्गी संगीत (2) देशी संगीत 

मार्गी संगीत के विषय में कोई भी विस्तृत विवेचन नहीं मिलता तथापि प्राचीन पांडुलिपियों में मार्गी संगीत को मोक्ष प्रदान करने वाला संगीत बताया गया है किन्तु देशी संगीत अपने विभिन्न स्वरूपों में आज भी जीवित है। ध्रुपद, धमार, ख्याल,तराना, सरगम गीत, लक्षण गीत,चित्रपट संगीत, लोकगीत, त्रिवट,चतुरंग आदि अनेकानेक प्रकार आज भी संगीत की विरासत को समृद्ध करते हैं। 

शास्त्र की दृष्टि से देखा जाए तो ध्रुपद गायन संगीत की सबसे प्राचीन विधा है। यह बहुत ही गंभीरता एवं शुद्धता के साथ गाया जाता है। ध्रुपद गाने के लिए कलाकार को अनवरत साधना में लगे रहना पड़ता है। माना जाता है कि ध्रुपद का आविष्कार 15वीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने किया था किंतु उसके बारे में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। स्वामी हरिदास, बैजू बावरा,सूरदास, रामदास,तानसेन आदि बहुत ही कुशल ध्रुपद गायक थे। 

संगीत की सभी विधाओं में सुर,लय,ताल और स्वर का अत्यंत महत्व है।संगीत के बारह स्वरों को जब विविध स्वरूपों में गाया जाता है तो मधुर गीतों की उत्पत्ति होती है। हर विधा की तरह संगीत के भी कुछ नियम होते हैं जिनका अनुपालन करना संगीत की आराधना करने के समान है।

संक्षेप में कहा जाए तो संगीत स्वयं ईश्वर का प्रतिरूप है। फिर चाहे वह भगवान शिव का डमरू हो, माँ सरस्वती की वीणा हो, श्रीकृष्ण की बाँसुरी हो या महर्षि नारद की वीणा। संगीत ना केवल मनोरंजन अपितु आत्मिक और मानसिक शांति का भी पर्यायवाची है। अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए संगीत को ही माध्यम चुना है।

नृत्यं वाद्यानुगं प्रोक्तं गीतानुवृत्तिं च।

अतो गीतं प्रधानत्वाद्त्राऽऽदावभिधीयते।।

ऋतु अग्रवाल 

मेरठ