मुर्गो का दर्द

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 


कुकड़ूँ कूँ आवाजों से हम, सब को सुबह जगाते हैं।

कुछ दिन की जिंदगी हमारी, फिर भी मारे जाते हैं।।


मुर्गा मुर्गी सारे चूजे, जाते लेकर हम टोली।

ढूंँढ़-ढूंँढ़ कर खाते दाने, करते हम मीठी बोली।।

सुंदर सा परिवार हमारा, मानव समझ न पाते हैं।

कुछ दिन की जिंदगी हमारी, फिर भी मारे जाते हैं।।


रखते हम को कैद करा कर, जाली में भर देते हैं।

दाम हमारा कम ज्यादा कर, मानव हम को लेते हैं।।

हमें बताओ गलती यारों, हम तो सुबह जगाते है।

कुछ दिन की जिंदगी हमारी, फिर भी मारे जाते हैं।।


कमी नहीं है खाने को जी, किसम - किसम पकवाने है।

हरी भरी सी साग सब्जियाँ, इनके भी दीवाने हैं।।

फिर भी देखो इंसानो को, नोंच-नोंच कर खाते हैं।

कुछ दिन की जिंदगी हमारी, फिर भी मारे जाते हैं।।


पल-पल श्वांस कीमती होती, नहीं चैन से सोते हैं।

बीवी बच्चे यारी दोस्ती, तड़प-तड़प कर रोते हैं।।

दया दिखाओ कुछ तो भगवन, मानव समझ न पाते हैं।।

कुछ दिन की जिंदगी हमारी, फिर भी मारे जाते हैं।।


रचनाकार

प्रिया देवांगन "प्रियू"

छत्तीसगढ़

Priyadewangan1997@gmail.com