इतिहास कोई साहित्य परिपूर्ण विषय नहीं!

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

इतिहास और साहित्य भिन्न-भिन्न विषय हैं।ऐतिहासिक साहित्य को इतिहास नहीं कहा जा सकता,चाहे वो आवश्यक रूप से ऐतिहासिक पात्रों पर आधारित हो।इन काल्पनिक गाथाओं के कारण इतिहास में कई विसंगतियां, किवदंतियाँ एवं भ्रांतियां का जन्म हुआ।निःसंदेह राजस्थान का इतिहास गौरवशाली रहा हैं, किन्तु यह भी सत्य हैं कि,इतिहास को अतिश्योक्ति भरा बना दिया गया हैं।

साहित्यकारों के कई ऐसे उदाहरण हैं, जो हमारे महान शासकों के व्यक्तित्व चित्रण में असमर्थ रहें और उन्हें अपनी कल्पनाओं से विभिन्न रूप प्रदान कर दिए।

क्या एक मेवाड़ का शासक इतना निर्धन हो गया था,कि उन्हें घास की रोटियाँ खानी पड़ी?वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने कभी भी घास की रोटियाँ नहीं खायी।कवियों की भावुकतापूर्ण काव्य लेखन ने ऐसी भ्रांतियों को जन्म दिया,जिससे इतिहास के नव-पाठक भावुक कवियों की व्याख्याओं को इतिहास मान लेते हैं।इसलिए,सावधान रहें कि,इतिहास कोई अतिश्योक्ति एवं कल्पना पूर्ण कहानी नहीं हैं।

आदर्श कवि, जो इतिहास को समदृष्टि से देखने में असमर्थ होते हैं, वे आदर्शवादियों के आकाश में स्वछंद उड़कर अतीत की घटनाओं का मख़ौल उड़ाकर रख देते हैं।अतः कवियों को इतिहास एवं साहित्य के मध्य सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता हैं, जिससे इतिहास कुरुपित न हो।

चन्द्रबरदाई की पृथ्वीराज रासो,मलिक मोहम्मद जायसी की पद्मावत इत्यादि कोई इतिहास नहीं हैं,अपितु वह इतिहास पर आधारित साहित्य हैं, जिसमें कल्पनाओं का भरपूर समावेश हैं।उपरोक्त ग्रन्थों का मूल्यांकन विभिन्न इतिहासकारों ने अपने बौद्धिक बल से किया हैं।सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझाजी ने पृथ्वीराज रासो जैसे ग्रन्थों को इतिहास की दृष्टि से निरर्थक बताया था।संयोगिता प्रकरण वैसे ही ऐतिहासिक विवाद का विषय रहा हैं।ओझाजी ने इस राजकुमारी होने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया था।पृथ्वीराज रासों में कई ऐसे दोहे हैं, जो खड़ी हिंदी के तरह प्रतीत होते हैं।सबसे मुख्य बात यह हैं कि,पृथ्वीराज तृतीय के समय चारण साहित्य का विकास ही नहीं हुआ था।चारण साहित्य का मुख्यतया उद्भव 13 वीं सदी में हुआ था।जायसी कृत पद्मावत रानी पद्मिनी के इतिहास के साथ खिलवाड़ करती हैं।श्री लंका (सिंहल द्वीप) की तथाकथित रानी पद्मावती का वैवाहिक संबंध रतनसेन से हुआ।चित्तौड़ और सिंहल द्वीप के मध्य दूरी लगभग 3500 किमी हैं।क्या यह संभव हैं कि उस प्राचीन समय में यह काल्पनिक संबध हुआ।हास्यास्पद हैं कि,ऐसे वैवाहिक संबंध तो आज भी देखने को विरले ही मिलते है।रावल रतन सिंह का राज्यकाल 1302-1303 ईस्वी तक रहा।मात्र 2 वर्ष के अल्पकालिक राज्यकाल मे रावल रतन सिंह के युद्ध  को जिस साहित्य में बताया गया हैं, वह काल्पनिक एवं निराधार प्रतीत होता हैं।ऐसे और भी साहित्य हैं, जो इतिहास को काल्पनिक कहानी बनाकर रख देते हैं।

इतिहास कोई चलचित्रों वाली कहानी नहीं हैं।इसमें कोई महानायक एवं खलनायक नहीं होता।अधिकांश साहित्यकारों ने एक का महिमामंडन करने के लिए विरोधी पक्ष को घृणित बनाने का कुत्सित प्रयास किये।सम्राट पृथ्वीराज चौहान को आदर्श योद्धा बना दिया गया,इसके विपरीत कन्नौज के महाराजा जयचन्द्र गहड़वाल को देशद्रोही बनाकर रख दिया गया।यहीं कृत्य महाराणा प्रताप और राजा मान सिंह आमेर के साथ भी घटित हुई।जब इन साहित्यकारों के गद्दार पात्रों का वर्णन इतिहास में पढ़ते हैं, तो उनकी स्थिति विपरीत ही दिखाई पड़ती हैं।जैसे कि,12 वी सदी के समकालीन इतिहासकारों ने महाराजा जयचन्द्र गहड़वाल का वर्णन किसी गद्दार के रूप में नहीं किया।साथ ही,राज मान सिंह आमेर का इतिहास दृष्टिकोण अलग ही बात कहता हैं।

अतः आवश्यक हैं कि,इतिहास और साहित्य के मध्य मूलभूत अंतर को समझा जाए।साहित्यों के प्रभाव से इतिहास में आयी विसंगतियों को दूर करा जाए,शुद्धिकृत किया जाए।इतिहास पर बना रहे फिल्मकारों को उपरोक्त अंतर सीखने की आवश्यकता हैं।इतिहास विभिन्न समाजों का प्राणकेंद्र होता हैं, यदि इसके साथ छेड़छाड़ की जाती हैं, तो इसका परिणाम कभी सुखद नहीं होते हैं।

मनु प्रताप सिंह चींचडौली, खेतड़ी