चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाते हैं,
आते जाते स्कूल की राहों में नजरें मिलाते हैं,
पेंसिल जब डेस्क के नीचे गिर जाये,
फिर से झुक जाना तुम भी...
पेंसिल का बोझ एक साथ उठाते हैं,
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाते हैं...
शब्दों को मौन रख आँखों से काम चलाते हैं,
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाते हैं...
तुम्हारे लिए बहुत कुछ लिखना ,
और उसे तुम तक पहुंचाने में ज़माने लगाते हैं,
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाते हैं...
हक़ीकत से इतर ख़्वाबों में घर बनाते हैं,
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाते हैं...
कुछ दोस्तों संग तुम भी आओ ,
कुछ सहेलियों संग मैं भी आऊं,
पिकनिक के बहाने इश्क़ की खिचड़ी पकाते हैं,
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाते हैं...
तमाम ज़िम्मेदारियों को भूलकर,
फुरसत के पल बिताते हैं ,
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाते हैं...
शुक्रगुज़ार हूँ मैं अनकहे अल्फाज़ का ,
बात दिल की इक दूजे तक पहुंचाते हैं,
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाते हैं...
रीमा सिन्हा (लखनऊ)