अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

कल रात को हरिवंशराय बच्चन सपने में आए थे। पूछा – बेटा तुम्हें हिंदी साहित्य में कोई रुचि है भी या नहीं या यूँ ही लिखते चले जा रहे हो। मैंने कहा – आपने हिंदी साहित्य तो जरूर रचा लेकिन बेरोजगारी का मजा नहीं चखा। अब चूंकि हमारे पास नौकरी नहीं है इसलिए कोरा कागज काला कर डालने वाला टाइमपास करते हैं। हर कोई यहाँ कोरे को काला करने में लगा है। हम भी भीड़ में शामिल हो गए। इन्हीं काला करने वालों में किसी एकाध को रोजगार न सही गोरा-चिट्टा पुरस्कार तो मिल जाता है। हम भी उसी आस में है। मेरी बातें सुन उन्होंने कहा -  बेटा इस तरह टाइमपास करोगे तो काम नहीं बनेगा। जानते नहीं मैंने हिंदी साहित्य को एक से बढ़कर एक रचना दी हैं। कम से कम उसका तो अध्ययन करो।

मैंने कान पकड़ते हुए कहा – बच्चन जी, आप ऐसा न कहें। मैं आपका बड़ा प्रशंसक हूँ। आपका लिखा गीत – मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है, मेरा सबसे पसंदीदा गीत है। मैं आपकी साहित्य साधना को ऐसे-कैसे अनदेखा कर सकता हूँ। न जाने बच्चन जी को क्या हुआ पता नहीं, वे एकदम से उखड़ गए। उन्होंने कहा – बेटा! मैंने कुछ फिल्मी गीत जरूर लिखे थे, लेकिन वे साहित्य के लिए नहीं रोजी रोटी कमाने के लिए थे।  तुमने कभी मधुशाला के बारे में सुना है। वह होता है सच्चा साहित्य। उसे पढ़ते तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती। मैंने आश्चर्य से कहा – मधुशाला! उसे तो मैं क्या आज की सभी पीढ़ी पसंद करती है। 

उसकी बढ़ती कीमतों की परवाह किए बिना उसे खरीदने के लिए हम मरे जाते हैं। बच्चन जी ने कहा – मेरा पाला भी कैसे मूर्ख से पड़ गया समझ नहीं आता। मैं आन कह रहा हूँ तो तुम कान सुन रहे हो। मैं मधुशाला पुस्तक की बात कर रहा हूँ। जिसके लिए मैं दुनिया भर में जाना जाता हूँ। मैंने स्वयं की गलती सुधारी और कहा – क्षमा चाहता हूँ। मधुशाला का मतलब पीने वाली जगह से लगा बैठा। मैंने उसे ठीक से नहीं पढ़ा है, लेकिन घर के पास शराब का एक ठेका है, उसका नजारा मेरी आँखों में अभी भी समाया हुआ है। मैं समझता हूँ आपने उसमें जो बातें लिखी होंगी उसी को मैंने ठेके पास ठहरकर व्यवहार में प्राप्त किया है।

बच्चन जी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर था। कहने लगे – तुम्हारा यही व्यवहार तुम्हें ले डूबेगा। तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता तुम्हें संघर्ष करने के लिए मजबूर कर देगी। तब तुम्हें मेरी अग्निपथ कविता की याद हो आएगी। मैंने कहा – यह कविता तो मुझे मुजबानी याद है। कविता कुछ इस प्रकार है -      

बेरोजगारी हों भली खड़ी, हों घनी हों बड़ी, एक रिक्त पद भी,

माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

तू न उठेगा कभी, तू न लड़ेगा कभी, तू न पूछेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

यह अच्छे दिन का काल है, विकास का सवाल है, मंदिर और बनाना है,

भूल मत भूल मत भूल मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

अपनी मूल कविता की पैरोडी सुन बच्चन जी अवाक् थे। जब तक वे अपने विस्मय अथवा क्रोध को प्रकट करते, तब तक सपना टूट चुक था। 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’