इस रूट के सभी घोड़े हिनहिना रहे हैं

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क  

पुराने मालिक ने अपने गुम हुए घोड़ों से बात करने के लिए फोन लगाया। दूसरी ओर से जवाब आया – इस रूट के सभी घोड़े हिनहिना रहे हैं। पुराने मालिक के पास जिन घोड़ों को पानी, चना और अस्तबल मिलता था, उन्हीं को नए मालिक के पास मधुशाला की असीम धारा, मुर्ग मुसल्लम और आलीशान होटलों का बंपर ऑफर मिलता है। ऐसे घोड़े महंगा-महंसा फोन इस्तेमाल करते हैं, लेकिन स्विचॉफ करके। इनकी आँखों पर माया की पट्टी बांधकर कभी कहीं एयरपोर्ट तो कहीं महंगी चार चक्का के ताम-झाम में नए मालिक के इशारों पर हिनहिनाने के लिए बंजारों की तरह इधर से उधर घुमाने के लिए नाक में नकेल डाल दी जाती है। इशारों के नकेली घोड़े नोटों की हरी-हरी घांस चरते हुए नए मालिक के लिए हिनहिनाते हुए स्वयं को भाग्यवान समझते हैं। इसे ही आसान शब्दों में हॉर्स ट्रेडिंग कहा जाता है।

किताबों में पढ़ा था कि फलाँ शताब्दी में जब घोड़ों के व्यापारी अच्छी नस्ल के घोड़ों की खरीद-फरोख्त करते थे और कुछ अच्छा पाने के लिए किसी तरह के जुगाड़ या चालाकी के लिए जो तकनीक अपनाते थे, उसे ही हॉर्स ट्रेडिंग कहा गया। बताया जाता है कि इस दौरान व्यापारी अपने घोड़ों को कहीं पर छुपा देते थे, कहीं पर बांध देते थे या फिर किसी और अस्तबल में पहुंचा देते थे। फिर अपनी चालाकी, पैसों के लेन-देन के दम पर सौदा करते थे। राजनीति में हॉर्स ट्रेडिंग ठीक इसके विपरीत होता है। जो पहुँचा हुआ होता है वह उतना ही नीचा काम करने के लिए जाना जाता है। वह सबसे पहले अच्छे घोड़ों के बदले छंटे हुए बदमाश, नोटों की हरी-हरी घांस के लिए माँ-बहन बेचने वाले, सबसे घटिया किस्म के खच्चर टाइप के नेताओं की तलाश करते हैं। चूंकि ये नोटों की हरी-हरी घांस खाने के सिद्धांत के परम उपासक होते हैं, इसलिए इन्हें मनचाहा घांस फेंककर दूसरों की घांस पर मुँह मारने से वंचित रखते हैं।

यही खच्चर टाइप के घोड़े जब अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करने के लिए अंतिम जगह पर पहुँचते हैं तब एक साथ जोर से हिनहिनाने लगते हैं। उनके हिनहिनाने में यह साफ होता है कि हम पुराने मालिक की सूखी-सूखी घांस से उबिया गए थे। अब हम नए मालिक की हरी-हरी घांस में मजा आ रहा है। इसलिए हम नए मालिक का ही फेंका हुआ घांस खायेंगे। हम इनके लिए जहाँ कहें वहाँ, जब कहें तब, जैसे कहें वैसे हिनहिनाने के लिए तैयार हैं। हमारी विशेषता यह है कि हम कभी नहीं बैठते। पता नहीं कौन कब कहाँ दौड़ने छिपने और हरी खांस वाले नोट खाने के लिए कह दे। हम केवल मरते समय जमीन चाटते हैं, वरना मरते दम तक नीयत बदलने के लिए खड़े रहने में हमारा सानी कौन हो सकता है! समय बदलता रहता है, लेकिन हम नहीं बदलते। जब तक हम हैं तब तक हिनहिनाना है। जब तक नोटों की हरी-हरी घांस है तब तक हमारा मुँह मारने का सिलसिला जारी रहता है। काश महाराणा प्रताप का चेतक और महारानी लक्ष्मीबाई का पवन भी हमारे साथ होता। उन्हें भी हम हिनहिनाना सिखा देते। दुर्भाग्य से वे बिना हिनहिनाए इस दुनिया से चल बसे।    

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657