स्कूल से निकली,,, लेकिन
कुछ टूटी फूटी चाक पड़ी रहने दी
उसी आगे की बेंच पर ,
आज भी सपनों के ब्लैक बोर्ड पर
कुछ आकृतियां बार-बार बनती-बिगड़ती हैं ,
डस्टर पता नहीं कहां रख छोड़ा मैंने
जबकि सारी अलमारियां भरी पड़ी हैं
बिना चैक हुई कापियों से ,
इंटरवल बैल की ट्न् ट्न् अब भी इतनी ही तेज़ है
बस, नहीं सुनाई पड़ती तो
वो प्रार्थनाओं की सामुहिक आवाजें
पहले की सी तरह !!
घर के आंगन से निकली,,, लेकिन
मुड़ मुड़कर देखती रही
अलमारी में रखी बचपन की फ्राकें.. खिलौने..
रह-रहकर याद करती रही
वो "कुछ सपनें"
टंगे रह गये थे जो कमरे की खूंटियों पर
स्कूल बैग के भीतर ,
कालिज की कुछ डायरियां
कोने से मुड़े पन्नों संग.. अधखुली पड़ी हैं टेबल पर
पेपरवेट मिला नहीं था तब.. बहुत तलाश करने पर भी ,
और..
अपनी हल्दी लगी हथेलियों की थापें ,
मानों हस्ताक्षर हों मेरे ही
मायके की देहरी पर
याकि कोई अमिट से पीले निशान
यादों की गर्त में भी चमकते रहे जो ऐसे ही !!
स्वयं की ज़िम्मेदारियों से निकली,,,
( नहीं,, स्वयं से तो कभी निकल ही नहीं सकी )
बस,, तलाशती रही स्वयं का अस्तित्व
इन सभी छूटे हुए निशानों में !!
कभी कभी सोचती हूं कि
अपनी ही कहानी के किरदार में "मैं" नहीं !!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ, उत्तर प्रदेश