एक खेल फिल्म में आरक्षण के विरोध का क्या मतलब

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क  

83 एक मजेदार फिल्म है। जिसे आजकल की भाषा में कहते हैं- मस्त। 1983 भारत के पहली बार क्रिकेट में विश्व विजेता बनने पर बनी फिल्म। तब टीवी बहुत कम हुआ करते थे। फिल्म में यह बताया भी गया है कि उस समय की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी किस तरह जगह-जगह टीवी लगाने की बात कर रही हैं। उसी समय दिल्ली, मुंबई महानगरों के बाहर नए -नए ट्रांसमिशन केन्द्र बनाए गए थे। तो उससे पहले के क्रिकेट की तरह उस वर्ल्ड कप की कामेन्ट्री भी रेडियो पर सुनी गई थी। फाइनल के जीतने के रोमांच का अनुभव भी कल्पना के सहारे रेडियो पर महसूस किया गया था। रेडियो पर मैच खत्म होने के बाद अखबार का इंतजार शुरू हो जाता था। और अखबार में उस खबर को पढ़कर, फोटो देखकर फिर क्रिकेट का सुरूर चढ़ जाता था। भारत के वर्ल्ड कप जीतने के बाद उसका वीडियो आया था। तब नए-नए वीडियो पार्लर बने थे। नाम पार्लर होता था मगर होते टपरा ही थे। कहीं टिन और तम्बुओं से बने हुए तो कहीं किसी बड़े हाल में। वहां इस फाइनल की वीडियो चलती थी। लोग कई-कई बार देखते थे। इस समय भारत का जीतना एक बड़े गौरव की बात हो गई थी। देश भर में क्रिकेट की एक नई लहर पैदा हो गई थी। ऐसा नहीं था कि क्रिकेट इससे पहले नहीं था। क्रिकेट तो भारत में हमेशा से सबसे फेवरेट खेल रहा है। जितना खेलने में उससे ज्यादा कामेन्ट्री सुने जाने में। जब भारत का मैच होता था रेडियो पर भारी भीड़ लगी रहती थी। बाजार में पान की दुकान पर रेडियो पर कामेन्ट्री चलती थी। और लोग सड़क घेर कर कल्पना के सहारे एक-एक बाल और शॉट पर डिस्कस करते रहते थे। हम लोग जो क्रिकेट खेलते थे। ग्राउन्ड में नक्शा बनाकर हाथ में डंडी लेकर बताते रहते थे कि यह मिड आन है श्रीकान्त ने यहां बाल मारी। ये कवर ड्राइव गावस्कर खेलता है।

बहुत खूबसूरत शाट होता है। देखो आफ पर यहां से निकाली है। आधे स्टार हम लोग हुआ करते थे। क्रिकेट की विशेषज्ञता उन दिनों बड़ी चीज हुआ करती थी। आज तो बच्चा-बच्चा इतना क्रिकेट जानता है, खेलता भी है कि वही उल्टा ज्ञान देता जाता है। आप अगर गलती से इतिहास में चले गए तो गूगल खोलकर याददाश्त के आधार पर आपकी बताई कहानियों में दस जगह गलती बता देगा। करेक्शन कर देगा। अब कहानीबाजों की दाल नहीं गलती। कभी क्रिकेट पर या दूसरे खेलों पर भी हम लोग अपने फादर की बात ऐसे सुनते थे जैसे ये अंतिम शब्द हों। इनके अलावा इस पर कुछ नहीं हो सकता। मगर आजकल अगर उस दौर की बहादुरी दिखाने के लिए बताओ कि गावस्कर दुनिया के आल टाइम सबसे तेज बालरों के खिलाफ ओपनिंग में हेलमेट नहीं लगाता था तो बच्चे फौरन कहेंगे कि कोच जाने कैसे देते थे? हमसे तो हर बार गार्ड पूछते हैं लगाया कि नहीं। कभी-कभी तो टटोल भी लेते हैं!

वह दौर ही अलग था। क्रिकेट जिन्दगी का हिस्सा होता था। जब टीम विदेश जाती थी और सुबह चार बजे से मैच शुरू होते थे। तो पहली बाल से मैच लगाकर लिहाफ में घुसकर सुना जाता था। कोई-कोई दोस्त भी मोहल्ले का आ जाता था। आज लड़के फुटबाल के दीवाने हैं। उसके सारे अन्तरराट्रीय मैच देखते हैं। और फिर ग्राउन्ड में जाकर उन्हीं की तरह फास्ट खेलते हैं। तेज गति से भिड़ते हैं। स्पोर्ट्स इन्जरी सेन्टर (सफदरजंग, दिल्ली) में मार लड़के घुटने और टखनों की चोट लिए बैठे मिलते हैं। हमारे समय में कैरी ( जिसे आज फुटबाल में भी ड्रिब्लिंग कहने लगे। पहले खुद बाल लेकर विपक्षी खिलाडि़यों को डाज देते हुए बढ़ने को हाकी में ड्रिब्लिंग और फुटबाल में कैरी करना कहते थे) सबसे बड़ी कलाकारी मानी जाती थी। उन दिनों टीवी नहीं थे। तो फास्ट उतना ही होते थे, जितना भारतीय परिस्थितियों में हुआ जा सकता है तो इन्जरी भी कम होती थीं। तो उस दौर की पुरानी यादें श्83श् देखकर फिर ताजा हो गईं। कपिल बिल्कुल कपिल जैसा लगता है। हम तो बहुत अरसे बाद फिल्म देखने गए। रणवीर सिंह बिल्कुल वैसा का वैसा ही कपिल लगा। 

श्रीकान्त भी वैसा ही चुहलबाज। इन सबसे मिले हैं तो फिल्म में बिल्कुल वैसे ही देखकर मजा आ गया। मगर एक डायलाग सुनकर अचानक चैंक गए। सेंसर ने कैसे पास कर दिया? क्या जानबूझ कर या माहौल ऐसा हो गया है कि इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देता! यह बातें सामान्य हो गईं। श्रीकान्त के मुंह से कहलाया गया कि कोटा सोटा से नहीं आए हम! बहुत ही आपत्तिजनक डायलाग है। आरक्षण संवैधानिक व्यवस्था है। जिनके साथ सदियों से अत्याचार हुआ, पीछे रखा गया उन्हें आगे बढ़ने का मौका देने के लिए। उस पर पहले भी निशाना लगाया जाता था। मगर थोड़ा संभलकर, लिहाज करके। आज तो खुलेआम आरक्षण विरोधी सम्मेलन हो रहे हैं। लिखा जा रहा है। इसके बहाने दलितों और पिछड़ों पर निशाना लगाया जा रहा है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 2015 के विधानसभा चुनाव के समय आरक्षण पर विचार करने की बात कहकर एक टोह भी लेने की कोशिश की थी कि क्या प्रतिक्रिया होती है। प्रतिक्रिया भयानक हुई।

 भाजपा के खिलाफ हुई और वह चुनाव हार गई। उसके बाद से भाजपा और संघ इस मुद्दे पर फिर अपने पुराने तरीके पर आ गए। जिसमें सवर्णों के बीच आरक्षण खत्म करने की बात और दलितों, पिछड़ों के बीच हिन्दुत्व को बढ़ाना और आरक्षण पर खामोश रहने की नीति।आरक्षण या दलित, पिछड़ों पर भाजपा और संघ के विचार किसी से छुपे नहीं हैं। मगर दूसरी पार्टियों में भी ऐसे नेताओं की भरमार है जो आरक्षण के विरोधी हैं। ऐसे नेता हर पार्टी में है। वामपंथी पार्टियों में भी। सामाजिक मुद्दों पर ये लोग सब कैसे एक होते हैं। इसको 1989 -90 में मंडल कमीशन की सिफारिशों के दौरान देखा गया। राजनीति कितनी कम विचारों से संचालित होती है और जाति, समुदाय के हित किस तरह सबसे प्रमुख हो जाते हैं। यह उस समय खुब साफ देखा गया। 

मीडिया में भी। हम नवभारत टाइम्स में थे। एसपी सिंह कार्यकारी संपादक थे। राजेन्द्र माथुर प्रधान संपादक। सीधे खाने बंट गए थे। एसपी जो खुद कम लिखने वाले थे खुलकर मंडल के पक्ष में लिख रहे थे और हमें भी खूब छाप रहे थे। विरोध कितना ज्यादा था यह बताने के लिए एक वाकया बताते हैं। एक दिन हमने एसपी से कहा कि आपको लोग क्या कहते हैं? आपको मालूम है? हंसे। बोले उनसे कहना कि नहीं तुम्हें मालूम नहीं। वे पिछड़े नहीं। मेहतर हैं। मगर उस समय यह भी आश्चर्य रहा कि दलित, ओबीसी के समर्थन में नहीं आए। उल्टा मंडल का विरोध ही किया। आज भी यही स्थिति है। यूपी जहां तीस-बत्तीस साल में दलित और पिछड़े दोनों को सबसे ज्यादा मौके मिले वहां चुनाव के समय दोनों एक दूसरे के खिलाफ हैं। 

मायावती और मुलायम या नौजवान अखिलेश यादव ने भी कभी दोनों समुदायों को जोड़ने की गंभीर कोशिश नहीं की। इसी का फायदा भाजपा उठाती है। एक दिन वह दोनों को यह समझाने में सफल हो जाएगी क्या कोटे सोटे में कुछ नहीं रखा। इसे खत्म करते हैं। फिल्म के डायलाग के बाद कहीं कोई सवाल नहीं है। ज्यादातर लोगों का ध्यान ही नहीं गया। इसे सामान्य बात मानकर सुन गए। मगर राजनीतिक लोग भी अब शायद बारीक बातों को नहीं समझ पाते कि इनके जरिए किस तरह माहौल बनाया जाता है। बिहार में जहां सभी पार्टी जातिगत जनगणना की मांग कर रही हैं वहां भी किसी ने इस अपमानजनक टिप्पणी का विरोध नहीं किया। मायावती से तो अब कोई उम्मीद करना ही बेकार है। और अखिलेश भी अपने पिता मुलायम सिंह की तरह सिर्फ राजनीतिक हानि लाभ ही सोचते हैं। विचार या सामाजिक न्याय से उन्हें भी ज्यादा मतलब नहीं है।