वृद्धावस्था विमर्श के अग्रदूत : भिखारी ठाकुर


आज  भारतीय भाषा- साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, किन्नर विमर्श (ट्रांस जेंडर डिस्कोर्स) और वृद्धावस्था विमर्श का प्रचलन है।इस विमर्श को लेकर  साहित्यकार और शोधार्थी लगातार काम कर रहे हैं।

भोजपुरी साहित्य में दलित विमर्श मराठी या हिंदी साहित्य में आने से पूर्व आ चुका था जिसका  उदाहरण बा हीरा डोम की भोजपुरी कविता ' अछूत के शिकायत'। विदित हो कि यह कविता सरस्वती के सितंबर, 1914 अंक में प्रकाशित हुई जिसके यशस्वी सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी थे।

इसी तरह भोजपुरी साहित्य में वृद्ध विमर्श में बहुत पहले से काम  चुका है। भोजपुरी साहित्य के समर्थ लोककलाकार, लोकप्रिय रंगकर्मी, नवजागरण के संदेशवाहक, नारी विमर्श, दलित विमर्श के प्रमुख उद्घोषक और लोकसंगीत साधक भिखारी ठाकुर वृद्ध विमर्श के प्रथम विमर्शदाता है। वे अपनी 12  लोकनाटको में अनेकानेक सामाजिक बुराईयों को हमारे समक्ष ले कर आये। उनकी रचनावली में उधृत भजन- कीर्त्तन- गीत -कविता में संकलित  ' बुढ़शाला के बेयान' के माध्यम से वृद्धावस्था के तकलीफ़, सन्तानों की अनदेखी, औलादों द्वारा बुजुर्ग माँ-पिता को नजरअंदाज और दुर्व्यवहार का वर्णन किया गया है। साथ ही   भिखारी ठाकुर जी बुजुर्ग लोगों  के दुःख को देख के बुढ़शाला (Old Age Home) बनाने का सुझाव भी दिया।
 
एक महान साहित्यकार का गुण है कि वह  सामाजिक समस्या के सबके सामने उठाता है और उसका निदान भी सुझाता है और इस कसौटी पर लोक रंगकर्मी भिखारी ठाकुर के ' बुढ़शाला के बेयान' खरा उतरता है। समाज का कोई भी संजीदा, सजग और समझदार इंसान उनके  विचारों से असहमत नहीं हो सकता। एक कवि  युगद्रष्टा भी होता है और भिखारी ठाकुर की दूरदर्शिता का यह परिचायक है कि  वे क
 अपने  समय में हो रहे सामाजिक मूल्यों के क्षरण व परिवार के टूटन, बिखर रहे मयार्दा को भाप लिया था  तभी वे वृद्ध लोगन के हालात को  देखकर  वृद्धाश्रम की व्यवस्था खातिर जन सहयोग की बात की।

भिखारी रचनावली के अनुसार - " वर्तमान काल में परिवार बूढ़े माता-पिता या अन्य बूढ़ों को नाना प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है इसलिए लोककवि का दूर दृष्टि परक निवेदन है- बुढ़शाला के रचना करीं। मइया के दुःख जल्दी हरीं। ना त टूटी माता के आस। कहियो एक दिन होई तलास। तबहीं खूब समुझब$ तोता। रोअब$ परदा भीतर अलोता। कहत 'भिखारी' दोउ कर जोर। समुझ परी तब टपकी लोर।'  (पृष्ठ - 236, भिखारी ठाकुर रचनावली, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना)

'बुढ़शाला के बेयान' में भिखारी ठाकुर कहते हैं  कि  'अब देखल जाय कि गाय वास्ते गौशाला खुल गइल, गरीब वास्ते धर्मशाला, गंवार वास्ते पाठशाला बड़ नीक काम भइल। उहाँ के माँग बा कि बूढ़ खातिर बूढ़साला (Old Age Home) खुले के चाहीं। ' समाज में छीजते मूल्यों को भिखारी ठाकुर ने बड़ा बारीकी से मूल्यांकन किया। बड़ा साहित्यकार वही होता है जो जो अपने समीप और आसपास के घटने वाले छोटे से छोटे घटनाक्रम, बदलते सामाजिक व्यवस्था, परिवार के टूटन को अपनी पारखी नज़र से देखता है। परिवार में बूढ़े माई-बाप के प्रति जवान बेटा बहु का नजरिया-व्यवहार बदलता जा रहा है जिसे  भिखारी ठाकुर ने शिद्दत से महसूस किया कि कैसे  परिवार में बुजुर्ग मां पिता की अनदेखी व  उपेक्षा हो रही है । ना तो उन्हें  समय से खाना मिल रहा है , ना समय से दवाई, ना उनके स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जा रहा है। इसके उलट  बेटा बहू व अन्य सदस्य  बूढ़ माँ बाप को कुत्ता  बिल्ली कह रहे हैं। जबकि आज का बुजुर्ग जिसने अपने बच्चों के लिए महाजन से कर्जा लेकर उनका  परवरिश किया, पाला पोसा और शौक पूरा किया परन्तु आज वही  बेटा उनको  इतना  दुःख देता है कि बाप धोती में मुँह छिपा कर  के दुआरी पर खटिया पर पड़ा  रो रहा है। कहा गया गया  कि बाप के पीठ धूप में और  माई का पेट चूल्हा के आगे जलता है तब बच्चों का पेट पलता है लेकिन बच्चे बुढापा का जब सहारा नहीं बनते तब  सोचा जा सकता है कि उन बुजुर्ग लोग के जिंदगी का क्या हाल होगा? 
 
वृद्ध लोग आपने अनुभव से कहते हैं कि जब बच्चों को  समझ आई तब वे तड़प जायँगे फिर उस समय कोई उनकी आँसू पोछने वाला भी नहीं होगा-
"समुझ परी कहिया, लोर टपकी तहिया।
लोर टपकी कहिया, बुढापा आई तहिया।" (पृष्ठ 268, भिखारी ठाकुर रचनावली, बुढ़शाला के बेयान।)

गाँव में जवान बेटा अपनी शेखी बघारने में, दिखावा करने में, मौज-मस्ती करने में, अपनी सुख सुविधा जुटाने में हज़ारों लाखों ख़र्च कर देता है लेकिन अपनी माँ-पिता की सेवा करने में असमर्थ हो जाता है यह सब बुजुर्गों कर प्रति उनकी उदासिनता है तभीभिखारी ठाकुर कहते हैं कि ' उपरे से चिकन बा, चमवा के छाजा
तीन दिन का सेखी में, उड़ावत बानी मजा
बूढ़ा-बूढ़ी के दुःख भइल बा, लागत नइखे लाजा।
बाबू- भइया एकमत होखे सब मिलि के समाजा
एह अरजी पर मरजी करीं ,मानवां के ताज़ा
महाबीर के नाम सुमिर लीं, जेह में बाजी बाजा
बुढ़शाला बनवाई ना त होत बा अकाजा
बाबू सब केहू के परत बानी पाँव, ह भिखारी ठाकुर नाँव। (पृष्ठ 270)

शहरी परिवेश में सीनियर सिटीजन हाऊस, ओल्ड ऐज होम आदि के प्रचलन जवन आज तेजी से हो रहा उसके पीछे  कुछ  पारिवारिक मजबूरी भी है तो  कुछ में बुजुर्ग स्वेच्छा से रहे हैं। आज के पीढ़ी सब दिन नहीं बल्कि विशेष  डे (day) परम्परा में विश्वास कर रही है और बाज़ार-कॉरपोरेट  नगर- महानगर में बुजुर्ग लोगों के लिए राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस या इंटरनेशनल डे फ़ॉर ओल्ड पर्सन्स 1 अक्टूबर के तय कर दी है इसी  दिन- तारीख कोक बुजुर्ग लोगों की चिंता किया जाएगा।  गाँव में पारिवारिक अवमूल्यन को भिखारी ठाकुर जितनी संजीदगी से उठाया है  उसका मुख्य कारण युवा पीढ़ी अपने बुजुगों के प्रति  संवेदनाशील बने उसकी बहुत जरूरत है । जैसे   कि एक माँ बाप अपने पांच संतानों को  पाल पोस लेता है लेकिन उनकी पांच संतानें अपनी मां बाप के बुढापा में सेवा नहीं पाती है। यह भी एक सबसे बड़ा सच है कि सबको बूढ़ा होना गया जैसा कि तथागत बुद्ध कहते थे पल पल परिवर्तन हो रहा है और परिवर्तन ही शाश्वत है। अतः जो भी संताने आज युवा है और अपने दायित्व बोध से बचती है, जिम्मवारियों को दरकिनार कर अपनी बुजुर्ग पीढ़ी का अनादर करती हैं वह भी परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे।

'बुढ़शाला के बेयान' में भिखारी ठाकुर बड़ी मार्मिक ढंग से उस बूढ़ी माँ की बात लिखते हैं जो कपकपाती होठों से, टूटे ह्दय से और जीवन की उजासी में रहते हुए कहती है-
'बुढ़शाला के कहीं कहानी, 
तेही के जानी करन समदानी।
सरवन करीं यह अमृत बाता, तेकरे लागी राम से नाता।
पाव भर में कइलस बाईं, नव मास तहां रखली माई।
करनी के फल कहिया मिली, मइया भइली कुत्ता तर के बिल्ली।
मइया के दुख भइल अपार, कहला से ना पाइब पार।
बुढ़शाला के रचना करीं। मइया के दुःख जल्दी हरीं।' 
(पृष्ठ संख्या- 268, भिखारी ठाकुर रचनावली)

सच, भिखारी ठाकुर से बूढ़े माँ की यह दुःख, दर्द और  उपेक्षा नहीं देखी जा रही है।  उन्होंने   अपने काव्यात्मक अभिव्यक्ति से समष्टि का  दुःख व्यक्त किया है और उपाय में, निवारण में  बुढ़शाला (ओल्ड ऐज होम) बनाये जाने की आवश्यता पर बल दिया है। एक माता-पिता की इससे बड़ी पीड़ा क्या हो सकती है जब वे आपने औलाद को एक माँ नौ महीने  अपने  पेट में राखि के, हर दुःख दर्द सह के, पाल-पोस के बड़ा कर देती है और  जब उस औलाद को सहारा बनने की बारी आती है तब  आज वह उनको इतनी  तकलीफ देता है  कि इसे शब्द में  कहल ना जा सकता। यही था  भिखारी ठाकुर के लेखनी और उनकी चिंतनधारा । वे समस्या के उठाते भी हैं, समझाते भी हैं, सबको जागरूक करते भी हैं, सबका ध्यान आकर्षित भी करते है और समस्या का निदान व निवारण देकर कर एक चिंतक सफल भूमिका निभाते हैं उनके इस गुण से ही पर प्रभावित होकर कर कहानीकार संजीव ने उनपर लिखे उपन्यास का नाम -सूत्रधार रखा होगा वैसे भिखारी ठाकुर अपने नाटकों में सूत्रधार की भूमिका में ही रहते थे परन्तु यहां सूत्रधार शब्द व्यंजना में भी अभिहित है। 

भिखारी ठाकुर कहते है कि 'युवावस्था में केहू के ई आभास ना होखेला कि उहो बुढ़ होखीं आ जवन परिस्थिति में सामना आजु बुढ़ लोग करत बा उहे स्थिति ओकरो सामने आई।' लोककवि प्रस्तावित करते है कि   हर गाँव में एक बूढ़शाला खुलना चाहिए जो गाँव के लोगों के चंदा से बने और वह नदी के किनारे बने। इस बुढ़शाला के संचालन का भार  भी गाँव के लोगों का सामूहिक रूप से होना चाहिए।
" अइसन भइल ना होखत बेया। देस-बिदेसे।कवनो जगहा।
हम नया कइलीं प्रचार , आस पुराईं बाबू- भइया।
मदद लेके थोरा-थोर, बने बुढ़शाला गाँव गाँव में।
माँगत बानी अतने भीख, हई 'भिखारी' बच्चेपन से।' ( पृष्ठ 270)

भिखारी ठाकुर के विचार  के हिंदी आलोचक  भगवान सिंह द्वारा ' साहित्य में वृद्ध विमर्श'  के आलेख  को जोड़ना जरूरी है । उस आलेख के कुछ पंक्ति उधृत करना  वाजिब बुझा है- ' वृद्धावस्था की बात करने पर अक्सर प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक अनातोले फ्रांस का यह कथन याद आता है- ‘काश! बुढ़ापे के बाद जवानी आती!’  अनातोले का यह कथन बड़ा ही सांकेतिक है। जवानी वह शारीरिक अवस्था है, जो जोश, ऊर्जा, शौर्य से ओत-प्रोत होती है, जिसका उपयोग करते हुए हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से जीवन-यात्रा तय करता है और इस क्रम में वह बुढ़ापा तक पहुंचता है। बुढ़ापे में जवानी वाली ऊर्जा शक्ति तो नहीं रह जाती, रह जाता है विविध अनुभवों का भंडार। इन अनुभवों के आलोक में व्यक्ति को जवानी के अनुभव रहित जोश में किए गए अपने कई गलत निर्णयों और कार्यों का अहसास होता है, तो वह अनुताप की आंच में तपते हुए यह सोचता है कि अगर उसे बुढ़ापे में जवानी जैसी ताकत, स्फूर्ति मिल जाए तो वह पहले से बेहतर, श्रेयस्कर कार्य कर सकता है- यही आशय है अनातेले फ्रांस के इस कथन का।'

'बुढ़शाला के बेयान' में भिखारी ठाकुर का कहना है कि उहो बुढ़ जेकरा पर उनकर बेटा जुलूम करत बाड़न उहे एक बेर जवान होखे देखल चाहत बाड़न कि उनकर संतान उनका सङ्गे इहे बेवहार करत बा त इनकर का प्रतिकिया होई।एक लोक रंगकर्मी के चिंतन दृष्टि का लोहा मानना चाहिए  कि वही बात दुनिया के दूसरे कोना में एक फ्रांसीसी विद्वान  कह रह है-

'बुढ़शाला के बेयान' का भोजपुरी साहित्य के  लिटरेरी एरेना में मूल्यांकन नहीं हुआ है अब वह समय आ गया है कि जब  साहित्य में ओल्ड ऐज पीपल्स पर डिस्कोर्स शुरू हो चुका है तो  वृहद स्तर पर ऐसी रचनाओं पर  काम में गुंजाइश दिखाई दे रहा है। (संदर्भ ग्रंथ- भिखारी ठाकुर रचनावली, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना)

--- - संतोष पटेल 
        नई दिल्ली 
       साहित्यकार