घूँघट का विज्ञान


युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क


सभ्यता-संस्कृति के विकास और विस्तार में कोई भी परम्रा स्वयं स्थापित नहीं होती। जब कोई तथ्य विचार जगत की परिसीमा से चलकर वस्तु जगत में आता है,तब वह बीज रूप में ही प्रवेश पाता है। उसके परिष्कार के उपरांत मानवीय जीवन में व्यापक रूप से स्थान दिलाया जाता है। उपयोगिता के आधार पर ही सारे परिष्कृत कर्म होते हैं । बीज रूप में आया कर्म संस्कारित होकर मानव जगत में संस्कार बन जाता है । बीज रूप से संस्कार बनने की विकास प्रक्रिया की जितनी पीढ़ियों को जानकारी रहती है वह संस्कार के रूप में मौजूद रहता है। जैसे-जैसे विकास प्रक्रिया से लोग मोहभंग कर लेते हैं तब वह है रूढ़ ग्रस्त होकर परंपरा बन जाती है। परंपरा को जड़ता या रूढ़ी लोग इसलिए मानते हैं क्योंकि लंबे कालखंड से चले आ रहे इस संस्कार की बीज रूप से संस्कार बनने तक की विकास यात्रा का ज्ञान नहीं रहता ।
परंपराएं तोड़ना मानव स्वभाव रहा है। परंतु इन परंपराओं को न तो सहजता से भंग किया जा सकता है न हीं स्थापित । देश रूप और काल भेद से परंपराओं का परिष्कार होते रहना चाहिए।
आज जो परंपरा सामाजिक और धार्मिक जीवन में मौजूद है वह संस्कार थी ; और संस्कार से पूर्व किसी काल में बीज रूप में उत्पन्न हुई । उनके उद्भव में वैज्ञानिक तार्किक बौद्धिक स्वास्थ्य संबंधी हेतु थे।विडंबना ये है कि इस भौतिक युग में साधारण मनुष्य पीछे की ओर झाँँकना अपना अपमान समझता है। तर्क और मनोविज्ञान साधारण लोगों के मस्तिष्क की धारणा नहीं है । बुद्धिजीवियों के अनुकरण पर ही समाज चलता है । साधारण मनुष्य परिस्थितियों के नकारात्मक पक्ष पर ही सोच सकता है । वह जो राग अलापता है वह प्रभावित लोगों के कथन का।
मौलिकता सृजनात्मकता आम आदमी का विषय नहीं। आम आदमी केवल उपभोग कर सकता है। उपयोगिता के सिद्धांत का उसे पता नहीं रहता है। परिस्थिति को सोचने समझने की क्षमता हर आदमी में नहीं है । समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग या जिससे वह प्रभावित है उनके वचनों को ही वेद वाक्य मानता है ।परंपराएं टूटती है बनती हैं पर  परंपरा का अपना विकास जब तक जारी है नहीं टूटती । 
बात करें घूँघट परंपरा की तो घूँघट निकालने के पीछे सबके अपने-अपने तर्क विचार हैं। कोई घूँघट को मुगलों से जोड़ता है तो कोई पठानों से कोई राजपूतों से तो कोई सल्तनत काल से । 
घूूँघट की परंपरा हमारे ऋषि-मुनियों की ही देन है। घूँघट निकालने के पीछे जो तर्क आज दिया जाता है वह वर्तमान में तर्कसंगत हो सकता है परंतु पूर्वकाल के लिए यह तर्क है निराधार है । पूर्वकाल में जो आधार लिए घूँघट के लिए वह आज भी प्रासंगिक हैं और बने रहेंगे। 
वैदिक संस्कृति में ऋषि-मुनि सभ्यता संस्कृति के परिष्कार और विस्तार पर चिंतन करते और आश्रमों में यज्ञ हवन करते। स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना और पर्यावरण का भी। कोई भी विषय जो मानवीय जगत के कल्याण के साथ इस भूमंडल के हित का है उनके चिंतन के क्षेत्र में था। पर्यावरण में जब विकार उत्पन्न होने लगे स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ तो उनकी दृष्टि श्वास प्रक्रिया पर गई। 
अशुद्ध हवा को शरीर में प्रवेश करने से रोकने के उपायों पर ऋषि मुनियों की संगति हुई । गहन विचार-विमर्श तर्क-वितर्क के बाद निर्णय हुआ  कि प्राणवायु शरीर से छोड़ते हैं तो अधर से स्पर्श करती हुई ठोडी की ओर जाती है ।
जब प्राण वायु ग्रहण करते हैं तब नीचे से यानी ठोडी की ओर से अधर को स्पर्श करती हुई आती है । 
यह सत्य सभी को स्वीकार था । निर्णय हुआ कि  ऋषि-मुनि अधर पर उगने वाले बाल रखेंगे और मुँह पर उगने वाले बाल भी । यानी दाढ़ी और मूंछ रखेंगे ।जिससे प्राण वायु शुद्ध होकर अंदर प्रवेश करें । 
प्राणवायु में धूलादि कण  दाढ़ी और मूंछ में ही रुक जाएंगे। नित्य स्नान से दाढ़ी मूछ स्वच्छ रखें। यह नियम बना कर बीज रूप में सब ने अपनाया।
यह उनके कालांतर में संस्कार बन गए । 
कुछ समय अंतराल बाद समस्या यह खड़ी हुई ऋषि-मुनि पत्नियों को शुद्ध प्राणवायु कैसे मिले। फिर एक संगति हुई जहां ऋषि-मुनि पत्नियाँँ भी मौजूद थी ।समस्या यह थी कि नारी  के मुंह पर पुरुषों जैसे रोम नहीं निकलते, तो इस पर वाद-विवाद करके निर्णय लिया कि क्यों न ऋषि-मुनि पत्नियाँँ सहमत हो तो ; जब दूषित हवा चले,धूल आदि कण धूंआ से वातावरण दूषित हो तब ये अपने मुँँह पर शीश आंचल नाक के नीचे तक खिसका ले। इससे आँँख और नाक की क्रिया सही रहेगी। प्राणवायु शुद्ध मिलेगी। उपस्थिति ऋषि पत्नियों ने स्वीकार किया। यह बीज रूप नियम उनका संस्कार बना। यही संस्कार गाँँव नगरों जनपदों तक पहुँँचा। उन्होंने भी संस्कार रूप में अपनाया । कालांतर में रूढ़ीग्रस्त होकर परंपरा बन गई। जिसे तोड़ने में सब लगे हैं। 
किसी भी धर्म का महात्मा हो,दाढ़ी- मूँँछ रखना एक सामान्य बात सब में है । ये बात अलग है कि उनको वास्तविक तथ्य नहीं पता। धार्मिक कट्टरपंथी जो ठहरे । घूँघट भी सब धर्मों में है । चाहे वह किसी रूप में हो। आज कोरोना ने घूँघट के महत्व को फिर से सही ठहराया । और ऋषि मुनियों के संस्कार पर है प्रासंगिक होने की छाप लग गई ।
मास्क घूँँघट का ही नया संस्करण है।


संक्षिप्त परिचय- ज्ञानीचोर (राजेश)
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, जिला सीकर,राजस्थान 
मो.9001321438