बरगलाना

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

हमें लगता है कि

ऊंचे ऊंचे पहाड़ों से,

पर्वतों के धर्मालयों से

कोई हमें बुला रहे हैं,

पर हम भूल जाते हैं कि

वे हमें बरगला रहे हैं,

हमें हमारी मूल स्थिति से,

मूल संस्कृति से,

हमारे मूल विचारों से

कहीं दूर बहुत दूर ले जा रहे हैं,

जहां से हो सकता

हमारा लौटना नामुमकिन,असंभव,

जहां हम खुद को भूल जाते हैं,

अपनों को नहीं पहचां पाते हैं,

और लग जाते हैं हम

तोते की तरह बोलने

उन्हीं की बोली उन्हीं की भाषा,

मानसिक गुलामी में

रम जाते हैं इस तरह

कि समझ नहीं आता कोई तमाशा,

वो खुद हमें गरियाते रहते हैं,

तब देखादेखी हम लग जाते हैं

उनके ही सुर में सुर मिलाना,

मन से हो जाते हैं इतना पंगु कि

दहाड़ना छोड़ शुरू कर देते हैं मिमियाना,

जहां वो खुद नहीं पहुंच पाये

दिखाकर सपने कहते हैं

अंतिम लक्ष्य है वहीं तक जाना,

कस्तूरी की आस में

हो जाते हैं खुद से बेगाना,

उन्हें पता है कि हम हैं प्रकृति प्रेमी

हमने अब तक ये क्यों नहीं जाना।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग