था और है में फर्क।

कविता कोष में जमा है,

जमाने की हर ख्वाहिश।

कौन कहता है कि,

इतिहास में बदलाव नहीं आया।

हम पढ़ते थे तब,

था का सहारा ली जाती थी,

आज़ खुशनसीब है कि,

है में सारे जहां की,

तस्वीर नजर आतीं हैं।

यह तो खुशियां और सुकून देने वाली ताकत बनकर,

हमें अपने इतिहास को जगाता है।

पूरानी रिवायत यहां,

ख़ुद ही ख़ुद दफ़न हो जाता है।

यह शरारत नहीं हकीकत है,

यही आज़ की दुनिया में,

सबसे बड़ी सियासत है।

फर्क करना होगा हमें,

इस था और है में हमें आज़,

यही सच्चाई की होंगी एक आवाज।

यह हमारी आस्था और विश्वास का,

एक अनूठा रंग है,

था और है में अन्तर का होना ही,

यहां इस जन्नत सी दुनिया में,

भारतीयता का खूबसूरत सतरंग है।

डॉ ०अशोक, पटना, बिहार।