न छेड़ो उसे टूटकर वो गिरी है नहीं नारी वो आदमी दामिनी है

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क


नहीं नारी वो आदमी दामिनी है


मेरी ज़िंदगी की यही इक कमी है

कभी ग़म बहुत है कभी बेबसी है


किसे याद कर लूँ किसे भूल जाऊँ

यहाँ हर तरफ अजनबी अजनबी है


गगन में हो जैसे खिला चाँद कोई

मेरी बस सियाही की तू रोशनी है


तू आया है दिल में ही जबसे मेरी जाँ

मेरे दिल में ठहरी ये आसूदगी है


मुझे रिश्तों ने छल है इतना दिया की

कहीं रूह अंदर मेरे सिसकती है


कोई भी नहीं है मेरा इस जहाँ में

मेरे हाथ लिक्खी ये कम-तालि'ई है


प्रज्ञा देवले✍️