अति पावन यह चातुर्मासा।
सहज धर्म मनुता में वासा।
इस तिथि पालक रहते ध्यानी।
महा-विष्णु योगी अवधानी।
अखिल जीव हों प्रभु की शरणा।
कारज जिनके करते वरणा।
एकादशि तिथि शुक्ला दिवसा।
योगेश्वर अभिलासा तपसा ।
शिवप्रभु लेते अवनि प्रभारा।
देव-साधु समझें आधारा।
चार मास जो वर्षा जोगा।
प्रभु आज्ञा अल्पहिं हो भोगा।
तज कुभाव सत सुधि अपनाते।
शुद्धि त्याग संयम लहराते।
आत्मिक मानव धर्म सजाते।
संकल्पित ऊर्जा हि लगाते।
अंतस आत्मा मंदिर बनता।
धैर्य अहिंसा व्रत भी रमता।
क्षमा-भाव अरिहंत हि देते।
विश्व धर्म सब मानव हस्ते।
पावन पूर्णिम गुरुहिं प्रनामा।
निष्ठा श्रद्धा अमरित धामा।
अति धन सागर खारा पानी।
साझा हो उपभोग सुजानी।
रहनि -कला हर धर्म सिखाते।
यथा शक्ति निग्रह दिखलाते।
काम क्रोध मद लोभ वर्जना।
समता हेतु सुभाव अर्जना।
अषाढ़ आलस नित्य हि हरता।
श्रवण भाव में सावन रहता ।
सरल मना भादो परिणामी।
सेवा मन आश्विन निष्कामी।
कार्तिक पूजें स्वर्णिम समता।
झुकता मैं औ' हंसती हमता।
@ मीरा भारती।