लहरें हूँ आती हूँ..,
वापस चली जाती हूँ..!
पत्थर कंकड़ ही नहीं किनारे पर,
कभी कभी हीरे के टुकड़े भी लाती हूँ ।
क़िस्मत के लकीरों की तरह..!
बादलों से बारिश चुरा लाती हूँ..,
घटाओं से ख्वाहिश चुरा लाती हूँ ।
बिजली भी कड़कना छोड़ देती है..,
चांद चकोर से गुज़ारिश चुरा लाती हूँ ।।
सीपियों को भी कर दिया है इशारा..,
कभी कभी चमकती मोती भी बिखेर जाती हूँ ।
लहरें हूँ आती हूँ..,
वापस चली जाती हूँ..!
बनते बिगड़ते तकदीरों की तरह..!
कभी वादा निभाने आते हैं प्रेमी..,
कभी कसम खाने आते हैं प्रेमी..!
कभी मिलने के लिए आते हैं प्रेमी..,
कभी बिछड़ने के लिए आते हैं प्रेमी..!!
बिछड़े हुए प्रेमियों की चरणों की
निशां मिटा जाती हूँ..!
लहरें हूँ आती हूँ..,
वापस चली जाती हूँ..!
आते जाते फकीरों की तरह..!!!
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह 'मानस'
manoj22shah@gmail.com