मर्यादायें बसी हुई संग संस्कार

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क


होली के लोक गीत गूंजते ,

सुनलो सुनलो मधुर मधुर ,

मकरंद की आवाज़,

आया वसंत फिर झूम 

झूम के अब , मन प्रफुल्लित,

हो उठा,

ऋतुओं का ये तो होता है ,

सिर मोर और सरताज ,

आज पलाश फिर संवरा 

दुल्हन सा नव यौवन सा ,

मन भावन करके श्रृंगार ,

सुर्ख लाल चटकीली सी सुंदर 

आभा हर सू .आँखों को 

भा जाती,

पलाश बना है देख लो सच

सारे ही पेड़ों का सरदार ,

शीत शरद बसंत ऋतु और

आई है हेमंत ,बसंत सुहानी ,

ऋतुएं सब ,ग्रीष्म ऋतु ,वर्षाऋतु ,

और शिशिर , परम्पराएं हैं , 

आंखे है हम सब की झिरमिर , 

मर्यादायें बसी हुई  संग संस्कार ,

हृदय के भीतर सर्वश्रेष्ठ का 

सम्मान और प्यार वसंत को , 

नव वर्ष आया करो अब प्रणाम ,

वसंत को , नई आशाओं के साथ,

निर्मल मन को अपने और ,

इस जीवन को , तुम उज्ज्वल

और प्रफुल्लित कर लो , 

इतरा लो आओ न आपस में,

सब मिल जुल जाओ , 

प्रकृति के नियमों में अब तो 

मिलकर ढल जाओ , 

सुखमय जीवन लीला सबकी , 

हो जाएगी ,  करो आत्मसात,

बात ऋषि मुनियों की, सारी,

समझ जो आ जायेगी प्राकृतिक

तत्त्व सौंदर्य , वृक्ष , और पहाड़ ,

पशु पक्षी का जीवन मीठा सा,

कलरव  मीठा और  प्यारा प्यारा,

धर्म हमारा सिखलाये,

पहले माह की ये शुरुआत ,

माह चैत्र का , अलख , नव नव अनुभव,

चैत वैशाख चार चांद सुंदरता ,

को लेकर , वसंत सुहाना ,

प्यारा प्यारा है सज जाता, 

नव वर्ष मार्च , अप्रैल की खुशियाँ 

लेकर , पहले पहले ही दौड़ -

दौड़ कर आ जाता . 


डॉ . मुश्ताक अहमद

शाह " सहज़"

हरदा मध्यप्रदेश,