डर


 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क   

ना तुझसे डर ना मुझसे डर,

डर है उन बुरी आदतों से।

जो बुराई बनकर आ जाती,

कर देती जीवन विध्वंस।

ना तुझ से डर ना मुझसे डर,

बसा है जो शैतान भीतर।

वह राक्षस जब बन जाता,

भूल जाता जग की रीत।

वाहियात सा बन जाता,

नारी की इज्जत ना करें।

देह सिर्फ समझे उसको,

कुत्सित सी नजरों से देखें।

घिनोना वह कर्म करें।

लगता उन दरिंदों से डर,

मानव रूप  में वाशिंदों से।

वाणी की कर्कशता से,

पल में जो पराया करती।

मन का जहर सारा उगलती,

ना तुझ से डर ना मुझसे डरो।

छिपा है देखो डर यहाँ,

बच्चों के सुंदर सपनों का।

उनकी सोच को लेकर डर,

समय के साथ जो बदली।

संस्कारों को कहीं खो रहे,

एकल परिवारों का डर।

भूल रहे जो यह बात,

कभी तो होगा बुढ़ापे से साथ।

न तेरा डर ना मेरा डर,

डर है हर जीव में बसा।

वह तो रूप बदल चला,

क्षण प्रतिक्षण लगता है डर।

अनजानी सी बात का डर।।

             रचनाकार ✍️

             मधु अरोरा