ये स्रृष्टि की सनातन जो,
कर्मो में भरोसा टिका हुआ।
निश दिन उस कर्मो का,
तन मन में कंटिका हुआ।
उस इंसानो के कर्मो का,
हर सपनो का निस्तार हुआ।
किस्मत काली साया हो पर,
संकल्पों का विस्तार हुआ।
संग ईष्ट मित्र संग भाई भाई,
निशा से निश निराश हुआ।
पाँव भी धोखे अपने पराये,
जो सफल जीवन हरास हुआ।
एक अजीब सी दौर जिंदगी,
दौड़ो जंग जीत जाओगे।
हार मानकर बैठ गए जब,
फिर पीछे पछताओगे।
एक मनचला धौस लगाए,
था क्रूर विषम अभिमानी की।
अभिमान की चक्रव्यूह तोड़,
इतिहास रचा स्वाभिमानी की।
इतिहास छोड़ क्या बात करे,
विज्ञान पीढ़ी जवानी की।
तू भी जिंदा पुरखा भी जिंदा,
पुरखौती बीती कहानी की।
कहते अभी भी जिंदा हूँ मैं,
पौराणिक काल से टिका हुआ।
असवस्थामा नाम जहाँ पर,
कलियुग में भी छिपा हुआ।
यही ज्ञान की सागर है जो,
वक्त बदलते फेर नही।
नही मिला जब कदम ताल से,
तो वक्त की आगे शेर नही।
हार मानकर जीवन से जो,
राई की पहाड़ बखेरा है।
कितनो सिर भी पत्थर मारो,
फिर भी जीवन अंधेरा है।
फिर भी जीवन अंधेरा है।
दिब्यानन्द पटेल
विद्युत नगर दर्री
कोरबा छत्तीसगढ़