जगन्नाथ रथ यात्रा, कुण्डल छंद

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क  


इन्द्रद्युम्न एक भूप,  कृष्ण दरश सपना।

अभिलाषा उन्हें  कहें,  यचत मूर्ति अपना।


आते हैं वृद्ध विप्र, ग्रहण करत भारा।

एकाकी देव  रचूँ , खुले नहीं द्वारा।


सप्तम दिन धैर्य तजें, खोल द्वार झांकें।

प्रभु के कर चरण नहीं,शिल्प काहि आंकें।


आशा नहिं राव दुखित, देव ऋषि पधारें।

विग्रह हो  अंग  रहित, यही प्रभु विचारें।


वैकुण्ठ है श्री क्षेत्र, धरा हुई धन्या।

कृष्ण हलधर के मध्य, बहिन शुभित कन्या।


आषाढ़ शुक्लहिं दूज, करें स्वामि यात्रा।

ताल ध्वज हैं स्थित हली, महतु शक्ति मात्रा।


पद्म ध्वज अनुजा स्थिता , मुग्ध होति  जनता।

गरुण  ध्वज तल भू-नाथ,चले त्याग  प्रभुता।


प्रिय -जन के संग निकस, करहिं भव दर्शना।

भक्त जो पहुंचे नहीं,    कृपा ताहि वर्षना।


गुंडिचा तीर्थहिं पहुँच, सबहिं दें  प्रसादा।

पुरजन सब डोर खिंचत, चलहिं पाँव प्यादा।


रथ रूप तन में आत्म,  चलति  प्रकृत  संगा।

सौहार्द प्रेम कि शक्ति, बहति  विश्व   गंगा।


@ मीरा भारती।

  पटना,बिहार.