राख का घर

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

सुसुप्त लौ उर में प्रज्ज्वलित,

मैं कैद विहग का पर हूँ।

इच्छाओं के ढेर पर सोया,

मैं राख का घर हूँ।

स्पंदन उच्छवासित,

करुण क्रंदन अजर हूँ।

अंतहीन हो मंज़िल जहाँ,

मैं श्रांत वो सफर हूँ।

सूख गयी बूँद बूँद जिसकी,

मैं वो तृषित सागर हूँ।

राग रागिनी नहीं जीवन में,

व्यथित भावों का मंजर हूँ।

निज रश्मि खो गयी हो जिसकी,

तेजहीन वो दिवाकर हूँ।

निज आश्रय की तलाश प्रतिपल,

विस्तृत जग में बेघर हूँ।

                  रीमा सिन्हा (लखनऊ)