शम्स की हर नूर पे मेरा ठिकाना हो गया,
आसमां थी छत ज़मीं मेरा बिछौना हो गया।
अब तलक मैं कैद थी अपनी बनाई रात में,
मैं चली हर राह पर मेरा निशाना हो गया।
जब मुहब्बत ने बनाई ख़्वाबीदा ए ज़िंदगी,
चाँद की हर ज़र्द पर भी मेरा जाना हो गया ।
तहरीरें सय्यारे मुझको दे रहे थे ज़र्ब दगा,
कर्म के पारस से भी दिल मेरा सोना हो गया।
फिक्र ने ए ज़िंदगी ताउम्र को कुछ यूँ डसा ,
बारहा कदमों जहर मेरा निकलना हो गया।
गालिबन उनसे मुहब्बत में कमी कुछ रह गई,
आरज़ू थी वस्ल की मेरा बिछड़ना हो गया।
प्रज्ञा देवले✍