प्रतीक्षा का एक-एक पल, सदियों की तरह लगने लगता है,
प्रतीक्षा पूरी हो जाए गर, मन को चैन और सुकून मिलता है,
धैर्य और उम्मीद के साथ, प्रतीक्षा का गहरा नाता रहता है,
जीवन शुरू होने के साथ ही, उसका जन्म भी तो होता है,
जन्म लेते से नवजात शिशु की भी जरूरतें शुरू हो जाती हैं,
आँचल में ले, कब माँ दूध पिलाएगी प्रतीक्षा शुरू हो जाती है,
घोंसले से झांकता व्याकुल बच्चा भी, माँ की प्रतीक्षा करता है,
चोंच खोल कर अपनी, माँ की चोंच से दाना मुँह में रखता है,
मैं भी इस दुनिया को देख सकूं, ये प्रतीक्षा कब पूरी हो पाएगी,
कब ले जाएगी संग मुझे, कब उड़ना माँ मुझको सिखलाएगी,
धरती माँ भी तो प्रतीक्षा करती, कब सावन की बदली छाएगी,
कब बरसेगा अंबर से पानी, कब धरती पर हरियाली आएगी,
टकटकी लगा कर किसान देखते, काले घने बादलों की ओर,
कभी बरसते, कभी प्रतीक्षा करवाते, चल देते कोसों उनसे दूर,
श्री राम ने भी तो प्रतीक्षा की, चौदह वर्ष घर लौट कर आने की,
समय बुरा था किंतु उम्मीद थी, हालातों से जीत कर जाने की,
आज भी समय बुरा है पर उम्मीद है इस जंग से जीत जाने की,
सभी चाह रहे, हो रही प्रतीक्षा इस महामारी से मुक्ति पाने की,
फ़िर लौटेंगे वही सुहाने पल, जब संकट की घड़ी छट जाएगी,
संपूर्ण विश्व की यह प्रतीक्षा, एक दिन अवश्य ख़त्म हो जाएगी।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)