दुर्गा माँ तुम आ गईं,हरने को हर पाप।
संभव सब कुछ आपको,तेरा अतुलित ताप।।
बढ़ता ही अब जा रहा,जग में नित अँधियार।
फैला दो माँ वेग से,तुम अब फिर उजियार।।
भटका है हर आदमी,बना हुआ हैवान।
हे माँ! दे दो तो ज़रा,तुम विवेक का मान।।
सद्चिंतन तजकर हुआ,मानव गरिमाहीन।
दुर्गा माँ दुर्गुण हरो,सचमुच मानव दीन।।
छोटी-छोटी बच्चियाँ,हैं तेरा ही रूप।
उन पर भी तुम ध्यान दो,बाँट सुरक्षा-धूप।।
हम सब हैं तेरा सृजन,तू सचमुच अभिराम।
दुर्गा माँ तू तो सदा,रखती नव आयाम।।
ये पल पावन हो गए,लेकर तेरा नाम।
यह जग दुर्गे है सदा,तेरा ही तो धाम।।
दुर्गा माँ तुम वेगमय,तुम तो हो अविराम।
धर्म,नीति तुमसे पलें,साँचा तेरा नाम।।
दुर्गा माँ तुमने किया,मार असुर कल्याण।
नौ रूपों में तुम रहो,पापी खाते बाण।।
सिंहवाहिनी दिव्य तुम,हम सब तेरे लाल।
दर्शन दो,हमको करो,हे माँ !आज निहाल।।
-प्रो0 (डॉ0) शरद नारायण खरे