युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
प्रसव पीड़ा की बात कहूं क्या,
तुमसे मै छुपाऊं भला क्या।
असहनीय पीड़ा सी तड़प रही थी,
बाहर आने को मचल रही थी।
पानी पानी चारों ओर मेरे था,
कोख में बेचैन सी घूम रही थी।
क्या कहूं या ना कहूं?
क्या खाऊं क्या पियूं?
बस मांँ के अंश से,
खुद को पाल रही थी।
जुड़ी थी मैं उसके अंश से,
भार मेरा संभाल रही थी।
मैं अंदर अंदर घूम रही थी,
संभाले खुद को संभाले मुझको,
खाए जो भी मेरी खातिर।
पसंद नापसंद सब भूल गई थी,
हर करवट पर मेरा ध्यान रखती।
जीती साथ साथ मेरे चलती,
एक से दो शरीर बनाती,
अपने लहू से मुझे पालती।
आया जब मैं बाहर,
असहनीय पीड़ा में थी,
उठने को थी लाचार,
दर्द सारा भूल गई।
भूल गई नौ माह की पीड़ा,
क्या क्या कष्ट थे उठाए।
भाल मेरा चुम गई।
धन्य है वह मां,
क्या कहूंँ मैं उसकी बात,
मां की ममता अतुलनीय।
कभी रोती कभी हंसती,
सीने से मुझे लगाती रही।
असहनीय पीड़ा सहकर,
प्यार से मुझे सहलाती रही।
रचनाकार ✍️
मधु अरोरा