दर्द है हर तरफ
गम की गहराई है।
खोई सी है खुशी
आंख भर आई है।
कर रहे हैं सफर
जाने किस आस पर
गुम है मंजिल कहीं
राह धुंधलाई है।
कहने को साथ
दुनिया का मेला चला
भीड़ में आदमी
संग में तन्हाई है।
साथी तो वक़्त है
मगर अपना नहीं
सितम से ज़िंदगी
इसके घबराई है।
चेहरे ढंक जाएं रंग
इतने चढ़ जाते हैं
गम की,मुस्कान पर
कोई परछाई है।
लोग हंसते हुए गम
छुपा लेते हैं
बेवफा ज़िंदगी क्या
वफा लाई है।
पतंग सा डर रहा
खुले अम्बर में मन
डोरियां किस्मतों ने
यूं उलझाई है।
खत्म हो जब कहानी
सुरभि जिंदगी
देखने वो मुकाम
आँख ललचाई है।
रिंकीकमल रघुवंशी 'सुरभि'
विदिशा-मध्य प्रदेश