मैं भी तो श्रृंगार लिखूं
कोई गीत प्रीत इंतजार लिखूं,
पर जब भी कलम उठाती हूं
श्रृंगार की जगह वैराग्य पाती हूं।
ऐसा क्यों? मुझे पता नहीं
शब्दों में श्रृंगार की सूझ ही नहीं,
भक्ति ही खनकने लगती
केशर सी महकने लगती,
शायद यह समझ है कलम की
जो वह श्रृंगार से विलग है,
भाग्य में वैराग्य बधा
जिससे सारा कर्म सधा,
सहज ही स्वीकारती कलम
और फिर बुद्ध के मंदिर में
प्रवेश कर जाती।।
अंजनी द्विवेदी "काव्या'
देवरिया ,उत्तर प्रदेश