हिमाचल प्रदेश जिला मण्डी सुकेत की अलग स्पष्ट सांस्कृतिक पहचान है हालांकि मंडी का उद्भव भी पूर्व में सुकेत रियासत से हुआ है परंतु मंडी के बाहरी संपर्कों एवं शहरी संस्कृति के आगमन के कारण मंडी की संस्कृति का पारंपरिक स्वरूप बदला है। जबकि सुकेत का विकट भौगोलिक स्वरूप यहां के जनमानस को स्थानिय सरोकारों को संरक्षित रखने में मददगार रहा है। सुकेत संस्कृति साहित्य एवं जन कल्याण मंच पांगणा के अध्यक्ष डॉ हिमेन्द्र बाली "हिम" का कहना है कि आज के द्रुतगामी समय के प्रवाह के साथ भी प्राचीन संस्कृति का मौलिक स्वरूप पांगणा-पज्याणु-करसोग व सम्पूर्ण सुकेत में बरकरार है।ग्रामीणों की जीवन चर्चा उनके आराध्य इष्ट देव के आदेशानुसार शासित होती है। इस क्षेत्र में सृष्टि के आधार मूल त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु और शिव की पूजा जगदम्बा दुर्गा के कई रूपों के साथ अनन्य भाव से की जाती है। यहां का जनमानस अपने देवों की पूजा अथाह श्रद्धा से करता है। पूजा का विधान दो तरह का है एक पारिवारिक पूजा और दूसरी मंदिर की पूजा।श्रावण मास की संक्राति को दोनो तरह का विधान देखने को मिलता है।संस्कृति मर्मज्ञ डाक्टर जगदीश शर्मा का कहना है कि सुकेत की ऐतिहासिक नगरी पज्याणु-पांगणा की सांस्कृतिक परंपराएं पौराणिक काल की हैं।काल प्रवाह में सदियां बीत गई लेकिन "सावन" मास के प्रति अगम्य आस्था आज भी बनी हुई है।आज संक्राति के शुभ दिवस से शिव को समर्पित सावन महीने की पूजा पाठ से शुरुआत हुई।पूरे एक माह तक चलने वाला सावन का महीना शिव भक्ति में लीन रहने का महीना है। पंडित रमेश कुमार शास्त्री जी का कहना है की श्रावण सक्रांति से ही अधिकतर व्रत और त्योहार आरंभ होते हैं। कहावत है कि "कोस- कोस पर बदले पाणी, चार कोस पर बदले वाणी" अर्थात प्रत्येक गांव के लिए अलग-अलग जल स्रोत तो चार कोस जाने के बाद बोली में अंतर आ जाता है। इसी प्रकार श्रावण संक्रांति के त्योहार/उत्सव को मनाने का भी अलग-अलग गांव में अलग-अलग ढंग है। पंडित रमेश शास्त्री जी का कहना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पालतु पशुओं की सेवा हेतु उनके शरीर को रोग फैलाने वाले कीड़े- मकोड़े से बचाव के लिए "चीड़ण" नामक जंतु उनके शरीर से निकालकर जल- बावड़ी के किनारे तिकोनी लकड़ी के ऊपर रखकर गोबर के मध्य जलाने की परंपरा है।ताकि "मीड़ू","चीड़ण" से पशुओं का बचाव हो सके। इसीलिए सावन की सक्रांति को"चीड़णु रा साजा" भी कहा जाता है।सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती की मण्डी जिला सलाहकार पज्याणु-पांगणा निवासी लीना शर्मा का कहना है कि क्षेत्र में शंकर भगवान की पूजा अर्चना के बाद पशु धन की रक्षा के लिए "चीड़नु-जलाए गये।फिर परिवार के सदस्यों ने खाने के लिए खीर तथा दूध "पटाण्डे","चिल्हड़े","एहंकुड़ी"तथा अन्य पकवान बड़े चाव से बनाए व पूजा के बाद खाने के लिए सभी को परोसे।इस दौरान लोगों ने अपने घर के दरवाजों पर संध्या समय "शिव चौकड़ी" के रूप में शुभ चिन्ह युक्त कागज के टुकड़े चिपकाए। डाक्टर हिमेन्द्रबाली'हिम"जी कहना है कि ब्राह्मणों द्वारा विशेष रुप से तैयार इस कागज पर संस्कृत श्लोक लिखा जाता है और साथ ही 16 वर्ग अंकित किए जाते हैं। जिन पर एक से 16 तक अंक इस प्रकार अंकित किए जाते हैं ताकि लंब रूप क्षितिज रूप में अंको का योग 34 आए। लोक मान्यता है कि यह 16 वर्गीय यंत्र शिव भगवान के आशीर्वाद का द्योतक है और इसमें दूरात्माओं को भगाने की शक्ति है। पुरातत्व चेतना संघ मंडी द्वारा स्वर्गीय चंद्रमणी कश्यप राज्य पुरातत्व चेतना पुरस्कार से सम्मानित डाक्टर जगदीश शर्मा व व्यापार मंडल पांगणा के अध्यक्ष सुमित गुप्ता का कहना है कि कितनी उदार और गौरवपूर्ण संस्कृति और सभ्यता है हमारे पांगणा-पज्याणु-करसोग-सुकेत की। श्रावण सक्रांति के अवसर पर देओरो- देओठियों में तथा देव कोठियों में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहा। सुकेत की सबसे ऊंची चोटी पर बने सिद्ध च्वासी के युवा कारदार टी सी ठाकुर और देव समाज के संयोजक नरेन्द्र ठाकुर"बडार" ने बताया कोरोना को देखते हुए मन्दिर समितियों ने अनेक सराहनीय कदम उठाए हैं। कठोर कर्म साधना मे तल्लीन करसोग-सुकेत वासी शिव भोले और अपने इष्ट देवों की अनुकम्पा और पारस्परिक सौहार्द पूर्ण सम्बन्धों में तादात्म्य बनाकर जीवन को यथार्थ में शिव शरण में आशीर्वाद व न्याय प्राप्त कर स्वंय को धन्य किया।
राज शर्मा (संस्कृति संरक्षक )
आनी कुल्लू (हि प्र)