गांधी, नेहरू के वैचारिक मतभेद पर सोशलिस्ट पक्ष=प्रोफेसर राजकुमार जैन
आजादी के संघर्ष में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी - भाग 9
( नई पीढ़ी के जो समाजवादी अपने पुरखों के इतिहास से अवगत होना चाहते है, वह समाजवादी आंदोलन के वरिष्ठतम साथियों में एक प्रोफेसर राजकुमार जैन के लेख श्रृंखला को अवश्य पढ़ें। कोई संशय हो उनसे उनके मोबाइल पर बात करें। उनका मोबाइल नम्बर 92 78 11 7616 है। प्रोफेसर जैन से बातचीत सायं 6 बजे से रात आठ बजे के बीच कर सकते हैं- धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव )
पिछले भाग-8 से आगे
-क्रिप्स योजना की विफलता के बाद भारत में निराशा के साथ-साथ जनता में रोष उत्पन्न हो गया था। गांधी जी को भी बहुत ठेस पहुंची, उनको लगता था कि दुनिया में नैतिक संघर्ष चल रहा है। एक ओर स्वाधीनता और जनतंत्र है और दूसरी ओर बंधन और तानाशाही है। उनका विचार था कि अंग्रेज़ लोग प्राय: स्वतंत्रता प्रेमी है और उनका अंत:करण ऐसा नहीं है कि उच्च आदर्शों की अपील का उन पर कोई प्रभाव न हो सके। परंतु क्रिप्स मिशन के बाद उनकी धारणा गलत सिद्ध हुई। गांधी जी की भी वही राय बन गई जो सोशलिस्टों द्वारा शुरू से कहा जा रहा था कि फास्सिट नाजी तथा मित्र देशों में कोई फर्क नहीं है ये दोनों ही शोषणकारी है अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते है। गांधी जी को लगा कि ऐसी सरकार (ब्रिटिश) से बातचीत करने का कोई फायदा नहीं है जो केवल भारत विभाजन की सोचती है। 27 अप्रैल, 1942 में कांग्रेस कार्यसमिति की इलाहाबाद में हुई बैठक में गांधी जी स्वयं तो नहीं गए, परंतु उन्होंने मीरा बेन के ज़रिये एक प्रस्ताव का मशविदा भेजा तथा जवाहरलाल जी को सूचना दी कि आचार्य नरेन्द्र ने भी उसको देख लिया है तथा इसको पसंद किया है।
मसविदे में गांधी जी ने प्रस्ताव किया कि '' ब्रिटेन भारत की रक्षा करने में असमर्थ हो चुका है उसे भारत के राजनैतिक दलों में विश्वास नहीं है। अगर अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले जाए तो भारत जापानी हमले या किसी अन्य आक्रमण से अपनी रक्षा बेहतर ढंग से कर सकता है। अंत में प्रस्ताव में मांग की गई कि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएं। प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि हमारा कोई झगड़ा जापान से नहीं है। उनका संघर्ष ब्रिटिश साम्राज्य से है। ब्रिटेन ने बलपूर्वक भारत को अपने अधीन कर साम्राज्यवाद का सहायक बना रखा है। इसलिए ब्रिटेन और उसके साथी जो युद्ध कर रहे है उसका कोई नैतिक आधार नहीं है तथा ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया गया था कि वह भारत में रखी गई विदेशी सेनाओं को हटा ले तथा विदेशी सेनाएं यहां लाना बंद कर दे, उनसे कहा गया था कि भारत में मानव शक्ति का अक्षय भंडार रहते हुए बाहर से सेनाएं मंगाना शर्म की बात है।
जवाहर लाल नेहरू ने गांधी जी के प्रस्ताव की तीखी आलोचना की। उन्होंने कहा '' यदि बापू जी की दृष्टि मान ली जाती है तो हम धुरी शक्तियों के निष्क्रिय सहयोगी बन जाएंगेा मैंने मित्र राष्ट्रों के साथ सौ फीसदी सहानुभूति की घोषणा की है और अब इस स्थिति से पीछे हटना मेरे लिए बदनामी की बात होगी। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, आसफ अली, भूलाभाई देसाई और गोविन्द बल्लभ पंत ने गांधी जी के मसौदे पर आपत्ति की किंतु बल्लभाई पटेल, आचार्य कृपलानी, राजेन्द्र प्रसाद, पी.सी. घोष, सरोजनी नायडु ने गांधी जी के प्रस्ताव का समर्थन किया :
कार्यसमिति में विशेष आमंत्रित समाजवादी सदस्यों आचार्य नरेन्द्र देव, अच्युत पटवर्धन ने गांधी जी के प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया। अच्युत पटवर्धन ने कहा कि ''ब्रिटिश सरकार आत्महत्या के रूप में व्यवहार कर रही है'' अगर हमने निर्णय नहीं लिया तो जवाहर लाल जी का रवैया हमें उस ब्रिटिश तंत्र से जो जल्दी ही टूटने वाला है, बिना शर्त सहयोग एवं आत्म–समर्पण को दिशा में ले जाएगा। मैं पूना-प्रस्ताव (जुलाई 1940) के विरुद्ध था लेकिन क्रिप्स के साथ बातचीत के खिलाफ़ नहीं था। बातचीत टूट जाने के बाद जवाहर लाल नेहरू ने जो बयान दिया, उससे मुझे बहुत दु:ख हुआ। इसमें सोच की जो प्रवृत्ति व्यक्त हुई, वह ऐसी स्थिति में ले जाने वाली थी जहां हमें ब्रिटेन को बिना शर्त सहयोग का मतलब होगा जापान को आमंत्रित करना।'' अच्युत जी ने सदस्यों को चेताया तथा कहा कि युद्ध साम्राज्यवादी है, हमारी नीति किसी भी पक्ष के समर्थन में नहीं होनी चाहिए।
कार्यसमिति की बैठक में आचार्य नरेन्द्र देव ने कहा '' मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ कि युद्ध एक है और आविभाज्य है। रूस और चीन का लक्ष्य वही नहीं है जो अमेरीका और ब्रिटेन का है। अगर यह एक है तो हम ब्रिटेन की तरफ युद्ध में शामिल हो सकते हैं। हमारी स्थिति यह नहीं है कि हमें सत्ता चाहिए क्योंकि इसके बिना हम राष्ट्रीय भावना जागृत नहीं कर सकते। हमारा कहना यह है कि अगर यह युद्ध जनता का युद्ध है और इसका कोई व्यावहारिक प्रमाण है तो हम लोकतंत्रों के पक्ष में खड़े हो सकते हैं। क्रिप्स के शरारतपूर्ण प्रचार का खंडन ज़रूरी है। क्रिस्प यह कहते रहे है कि आंतरिक मतभेदों की वजह से समझौता नहीं हो पाया। राजा जी ने उनके हाथ मजबूत किए हैं। ब्रिटेन के प्रति हमारे रवैये को प्रभावित करने में जापानी ख़तरे का भी योगदान रहा है। इसके कारण हमने पूना प्रस्ताव में भी संशोधन किया है। हमें यह बात स्पष्ट करनी होगी कि जापानी खतरे ने भी हमें भयभीत नहीं किया है। हम अंग्रेजों से कह सकते है कि वे जाएं और हमें हमारे भाग्य पर छोड़ दे। भारतीय राजनीति में जो भी अवास्तविकता है वह ब्रिटिश शासन की वजह से है। ब्रिटिश शासन ख़त्म होगा तो अवास्तविकता भी ख़त्म होगी। हिटलर के जर्मनी को हराने में मेरी रुचि नहीं है, मेरी ज़्यादा रुचि युद्ध के लक्ष्यों और शांति के लक्ष्यों में है।''
मौलाना आज़ाद राजगोपालाचार्य और जवाहरलाल नेहरू ब्रिटिश सरकार के साथ कोई सम्मानजनक समझौता करने को उत्सुक थे। जवाहरलाल जी जापानियों के खिलाफ़ खुले सशस्त्र प्रतिरोध तथा छापामार युद्ध की बात करने लगे थे। उन्होंने यहाँ तक कहा कि सुभाष बाबू अगर जापानी सेनाओं के साथ आए तो वे हाथ में तलवार लेकर उनसे युद्ध करेंगे। नेहरू जी के दिए गए वक्तव्य की गांधी जी ने निंदा करते हुए चेतावनी दी कि इस तरह की बातों से केवल कांग्रेस नेतृत्व में दरार आ सकती है। ''मुझे अफसोस है कि उन्हें छापामार युद्ध का शौक चर्राया आया है। लेकिन मेरे मन में कोई संदेह नहीं कि यह नौ दिनों का अजूबा होगा। इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।'' उन्होंने 15 अप्रैल 1942 को जवाहर लाल को लिखा कि ''वे गलती कर रहे हैं, अमेरिकी सेनाओं के भारत में आने या हमारे द्वारा छापामार युद्ध शुरू करने में मुझे कोई फायदा नहीं दिखता।'' यह मेरा कर्त्तव्य है कि मैं तुम्हें सचेत करूँ।
गांधी जी और जवाहरलाल जी के बीच तीव्र मतभेद हो गए। जवाहरलाल जी ने कार्यसमिति से इस्तीफा देने की पेशकश की। गांधी जी ने कहा ''मैंने इस मामले पर बहुत विचार किया है, और मैं अब भी मानता हूँ कि कार्यसमिति से हटने से तुम्हारी सेवा करने की क्षमता बढ़ेगी।'' यानि जवाहरलाल को इस्तीफा दे देना चाहिए। गांधी जी ने नेहरू जी को इंगित करते हुए कहा कि जो आदमी इस समय कांग्रेस का पदाधिकारी है वह समय के तकाज़े से नावाकिफ है। गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू के विचारों में काफी खटास आ चुकी थी, जवाहरलाल के विचारों से क्षुब्ध होकर गांधी जी ने कह दिया कि अगर उन्हें विद्रोह का झंड़ा फहराना ही है तो वे करे। गांधी जी ने कहा लगता है कि जवाहरलाल नेहरू ने अहिंसा को छोड़ दिया है। गांधी जी ने व्यथित होकर लिखा कि तुम्हें जो करना है करो। जनता (भारत) को तुम रोक सकते हो, तो रोको। उनका भाषण (जवाहरलाल) का जैसा कि आज समाचार पत्रों में छपा है, बहुत ही भयानक है, मैं उनको इस संबंध में लिखूंगा। गांधी जी ने 15 अप्रैल को जवाहरलाल जी को लिखा कि हमारी बहुत बार मुद्दों पर अलग-अलग राय रही है, परंतु अब ऐसा प्रतीत होता है कि अब इसको क्रियान्वित करने में भी हम लोगों की राय अलग-अलग है। यह मेरा कर्त्तव्य है कि मैं तुम्हें सचेत करूँ।
नेहरू जी का रुख डॉ. लोहिया को बहुत अखर रहा था। उन्होंने नेहरू जी के भाषण का प्रतिवाद करते हुए अंग्रेज़ों तथा मित्र राष्ट्रों का समर्थन करने के लिए उनकी कड़ी आलोचना करते हुए 1942 में अल्मोड़ा के राजनैतिक सम्मेलन में नेहरू जी को ''बहुत जल्दी बदलने वाला कलाकार'' कहते हुए चेतावनी दी कि अगर उन्होंने अपना रवैया नहीं बदला तो तब जनता और विशेषकर नौजवान केवल एक आदमी (गांधी जी) की बात सुनेंगे जबकि अब तक वो दो लोगों (गांधी-नेहरू) की बात सुनते है।
गांधी जी जिन्होंने कभी नेहरू को अपना उत्तराधिकारी कहा था, उस पर चुटकी लेते हुए किसी पत्रकार ने गांधी जी से कहा कि क्या जवाहरलाल उनके कानूनी उत्तराधिकारी नहीं है? गांधी जी ने उसके उत्तर में कहा कि मेरा यह कथन नहीं था, मेरा आशय था कि यथार्थ में वो मेरा उत्तराधिकारी है। ''गांधी जी और नेहरू जी में युद्ध में अंग्रेज़ों का साथ देने को लेकर आपस में बहस होती रही। गांधी जी का कहना था कि अगर भारत में अंग्रेज़ी शासन बना रहा तो जापानियों को भारत पर हमला करने का बहाना मिल जायेगा। गांधी जी की मान्यता थी कि हर हालत में अंग्रेज़ भारत से जाए, हमें हमारे भाग्य पर छोड़ दे। गांधी जी अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर करने के लिए अनशन तथा आत्म बलिदान करने तक को तैयार थे।
अब सवाल उठता है कि जवाहर लाल जी के विचारों में परिवर्तन क्यों होता रहा। उन्होंने पहले अंग्रेज़ी सरकार के अधिनियम 1935 का विरोध किया था। वे प्रांतों में कांग्रेस द्वारा सरकार बनाने के खिलाफ़ भी थे। शुरू में उनकी और गांधी जी की एक सी राय थी, फिर वो अंग्रेज़ों का साथ देने के लिए तैयार क्यों हो गए? जिसका एक कारण यह था कि क्रिप्स योजना के आधार पर प्रस्तावित विस्तृत एक्जीक्यूटिव कौंसिल में शामिल होने के लिए जवाहर लाल नेहरू इच्छुक हो गए थे बिना इस आश्वासन के बावजूद कि इस कौंसिल को एक मंत्रिमंडल के समान अधिकार प्राप्त होंगे।
दूसरा गांधी जी के विरोध के कारण क्रिप्स मिशन की चतुराई नहीं चल पाई। जिसके कारण जवाहरलाल नेहरू निराश, व्यथित हो गए क्योंकि वो चाहते थे कि भारत सरकार के नेता के रूप में फासीज्जम के विरोध में चीन और रूस के साथ हाथ मिलाकर संघर्ष करते।
तीसरा – नाजीवाद, फासीवाद और जापानी सैन्यवाद की क्रूरताओं को देखकर नेहरू जी के मन में घृणा उत्पन्न हो गई। जिसके कारण ना चाहते हुए भी उनका बरतानिया हुकूमत के प्रति विरोध का रवैया धीमा पड़ गया। परन्तु बाद में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की हठधर्मिता, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे उनके जेल जीवन के साथी डॉ. लोहिया जैसे उनके समर्थक के विरोध तथा गांधी जी के सख्त रुख से जवाहर लाल जी विचलित हो गए और अंत में उन्होंने गांधी जी के सामने समर्पण कर दिया।
जारी ………………..